डॉ. सुधीर शर्मा
छत्तीसगढ़ी का लोक-संसार छत्तीसगढ़ी के अर्थ-संप्रेशणीयता से परिपूर्ण लोक-शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों, कहावतों किवदंतियों और हाना से अत्यंत समृद्ध है । हिन्दी के शब्द-संसार को हिन्दी की लोकभाशाओं ने विशाल स्वरूप प्रदान किया है । छत्तीसगढ़ी ने भी इस संसार को विशिश्ट प्रदेय किया है । छत्तीसगढ़ कृषि संस्कृति का प्रदेश है । अनादि काल से यहां कृषि और ऋशि की संस्कृति ने छत्तीसगढ़ी मनुश्य को सुसंस्कृत किया है । कृषि की संस्कृति ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को प्रभावित किया है, यही कारण है कि छत्तीसगढ़ी के लोक-मुहावरे हाना में कृषि संस्कृति के अनुपम दृश्य दिखाई देते हैं ।
मुहावरे और लोकोक्तियां जीवन के श्रंृगार होते हैं । ये गोठ-बात को कहने के लिए अतिरिक्त प्रभाव पैदा करते हैं । हाना कहावतों, लोक-मुहावरों का संगम है । ये गीत की पंक्तियों की तरह लययुक्त होते हैं । छत्तीसगढ़ी के हानों में गांव की खुशबू है । ये मनुश्य के जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कारों को लोकायित करते हैं । विवाह से संबंधित एक हाना देखें -
कुल बिहावे कन्हार जौते ।
अर्थात मनुश्य को विवाह अच्छे कुल में करनी चाहिए । ठीक इसी तरह खेती कन्हार जमीन पर करनी चाहिए । ऐसा करने से मनुश्य को दोनों में सफलता मिलती है । हाना के माध्यम से कुल और जमीन की तुलना करना तथा विवाह के लिए सार्थक संदेश देना छत्तीसगढ़ी हाना की विशेशता है । हाना में आज के समय की पलायन की िचंता का उपस्थित होना भी इसे सामयिक बनाता है । एक उदाहरण देखें -
खेती रहिके परदेस मां खाय, तेखन जनम अकारथ जाय ।
खेती की जमीन होने के बाद भी जो मनुश्य परदेस जाकर कमाता-खाता है, उसका जन्म व्यर्थ है । उसे अपने जमीन पर खेती करनी चाहिए, इसी से उसका जीवन सफल हो सकता है ।
छत्तीसगढ़ी के हाने में मनुश्य को बुरी आदतों से बचने के लिए भी सचेत किया गया है । यदि मनुश्य खेती पर ध्यान नहीं देता और बुरी आदतों में संलग्न रहता है तो उसकी खेती का नाश होना तय है । एक उदाहरण देखें -
खेती धान के नास, जब खेले गोसइयां तास ।
आशाढ करै गांव-गौतारी, कातिक खेलय जुआ
पास-परोसी पूछे लागिन, धान कतका लुआ ।
मौसम के अनुरूप व्यक्ति को खेती आदि के कार्य करने चाहिए अन्यथा पास-पड़ौस के लोग पूछने लग जाएंगे ।
इन हानों में जीवन के सुख-दुख, धूप-छाॅव, अच्छाई-बुराई, बाल-बच्चे, व्यंग्य-परिहास, गर्मी-सरदी, आकाश-पाताल, सूखा-बाढ़, आदि के अनुभवों को जीवन-संदेश के रूप में प्रकट किया गया है । ये हाने पीढ़ी-दर-पीढ़ी उपयोग में लाए जा रहे हैं । इनका निर्माण किसने किया यह कोई नहीं बता सकता लेकिन हमारे बुजुर्गों के सुख-दुख से भरे जीवन के अनुभवों ने इनका निर्माण किया है । आज ये हाने छत्तीसगढ़ के ग्रामीण लोगों के लिए न केवल उपदेश से भरे हैं अपितु ये मनोरंजन के साधन भी हैं । सहज-सरल शब्दों को लोक-छंदों में रचे-बुने ये हाना आज के समय को इतिहास और परंपरा से प्रत्यक्ष जोड़ते है। साथ ही इनके संरक्षण के लिए हमें प्रेरित भी करते हैं ।
महानदी के महिमा, सिनाथ के झोल ।
अरपा के बारू, अउ खारून के सोर ।
नदी-संस्कृति छत्तीसगढ़ की संस्कृति का प्रवाह-सेतु है । महानदी, अरपा, खारून, शिवनाथ जैसी नदियों ने हमारी कृषि संस्कृति को पोशित किया है । यही कारण है कि हानों में इन नदियों की प्रकृति और प्रवृत्ति की ओर संकेत किया गया है । महानदी के महिमा अपरम्पार है, शिवनाथ की गहराई, अरपा में रेत ही रेत है तो खारून के कलकल की आवाज लुभाती है ।
छत्तीसगढ़ की प्रकृति की अनुपम छटा भी छत्तीसगढ़ी हानों में सुंदर ढंग से रूपायित हुई है । एक उदाहरण देखें -
का हरदी के जगमग, का टेसू के फूल ।
का बदरी के छइहां, अउ परदेसी के संग ।
या
राई के परवत, अउ परवत के राई ।
ए दे बूता कोन करै, डौकी के भाई ।
ऐसे सैकड़ों हाने हैं, जिनमें प्रकृति के माध्यम से ग्रामीण परिवेश में व्याप्त जीवन-मूल्यों को प्रस्तुत किया गया है ।
खोरवा-कनवा बड़ उपाई ।
कानी आंख तौन मा काजर आंजै ।
अंधरा मा कनवा राजा ।
या
बिन आदर के पहुना, बिन आदर घर जा ।
गोड़ धोये परछी मा बइठे, सुरा बरोबर खाय ।
आज के बासी काल के भात, अपन घर म का लाज ।
ऐसे अनेक हानों में जीवन जीने का पाठ पढ़ाया गया है । इसी तरह मां की महिमा को छत्तीसगढ़ी हानों ने और अधिक आत्मीय कर दिया है । माता के बच्चे के पालने से लेकर बड़ा करने और उसके त्याग को हानों ने नई परिभाशा दी है । लोक में आकर मां और अधिक पवित्र तथा ममतामयी हो जाती है । इन हानों से पता चलता है कि छत्तीसगढ़ की मां एक ग्रामीण विश्वविद्यालय की तरह बच्चों को प्रशिक्षित करती हैं, उन्हें संस्कार देती है । बाद में यही छत्तीसगढ़ का बालक समन्वय, समरसता, समता के भाव लेकर अतिथि सत्कार, ईमानदारी, कत्तZव्यनिश्ठा और सेवा का अनुगामी हो जाता है । छत्तीसगढ़ी मनुश्य के निर्माण में इन हानों ने अद्भुत भूमिका अदा की है । कुछ उदाहरण देखिए -
महतारी के पेट, कुम्हार के आवा ।
महतारी के परसे, अउ मेघा के बरसे ।
दाई के मन गाय असन, बेटा के कसाई ।
इसी प्रकार पत्नी, बेटी, सास-बहू, विधवा नारी, सौतन, आदि रूपों में नारी के जीवन-अनुभवों को आधार बनाकर हाने रचे गए हैं । और तो और छत्तीसगढ़ी के हानों में ईश्वर की महिमा, वैराग्य, भाग्यकर्म, नीति-उपदेश, अंधविश्वास, शिक्षा, समाज, रिश्ते-नाते, पशु-पक्षी आदि विशयों पर भी मौलिक ढंग से दृश्टि डाली गई है । छत्तीसगढ़ी हानों पर शोध करने वाली डॉ. मृणालिका ओझा भी लिखती हैं कि किसी प्रदेश की लोकोक्तियां उस प्रदेश के जीवन को समझने में सहायता करती है। उस प्रदेश के लोग किस चीज को स्वीकार करते हैं, किसे नकारते हैं और किसे महत्व देते हैं, ये हानों से पता चलता है । छत्तीसगढ़ के हाने समूचे छत्तीसगढ़ की झांकी प्रस्तुत करते हैं ।
वस्तुतः लोक का संसार इन सब तत्वों से ही बनता है । मनुश्य के जीवन की परंपराएं, खान-पान, रहन-सहन, संस्कार, प्रकृति के साथ उसका तादात्य्श संबंध, पशु-पक्षियों से मित्रता और िचंतन की विभिन्न धाराओं से उपजा ज्ञान-विज्ञान यही लोक का निर्माण करते हैं। यही भारतीयता के लक्षण है । लोक का गहरे अर्थों में जाकर अनुभव करना और भारतीयता की सही पहचान पाने के लिए छत्तीसगढ़ के हानों के लोक में जाना होगा । छत्तीगढ़ के ये हाना अपने अर्थ-वैशिश्य् , विशय-विविधता और अद्भुत संप्रेशणीयता के कारण बोधगम्य और मनोरंजक भी हैं ।
संदर्भ -
1 यदु डॉ. मन्नूलाल, छत्तीसगढी कहावत कोश, छत्तीसगढ़ अस्मिता प्रकाशन, रायपुर , 1995
2 महरोत्रा डॉ. रमेशचंद्र, छत्तीसगढ़ी मुहावरा एवं लोकोक्तियां, सतसाहित्य प्रकाशन, नई दिल्ली 1984
3 शर्मा, डॉ. सुधीर, छत्तीसगढ़ी के व्याकरण, वैभव प्रकाशन, रायपुर 2010
4 शुक्ल डॉ. दयाशंकर, छत्तीसगढ़ी का लोकतात्विक अध्ययन, वैभव प्रकाशन, रायपुर, 2011
5 ओझा, डॉ. मृणालिका, छत्तीसगढ़ी की लोकोक्तियां, शताक्षी प्रकाशन, रायपुर, 2009
- अध्यक्ष, हिन्दी विभाग,
कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
भिलाईनगर, जिला-दुर्ग
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