छुआछूत विरोधी आन्दोलन: पंजाब के विशेष संदर्भ में

डॉ. जयनारायण यादव

बीसबी सदी के आरंभिक चरण में पाश्चात्य नवजागरण से प्रभावित सामाजिक सुधारों के प्रति अस्थावान प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का एक वर्ग सामाने आया। वे अपने जातीय संगठन बनाने और उनके सुदृरीकरण में प्रवृत हुए। अपनी-अपनी जातीय संस्कृति एवं इतिहास जानने की ललक उठी और समाज में स्थान पाने की व्यकुलता हुई वे अपनी पहचान के लिए जागरूक हो उठे। इससे जातिगत चेतना और दलित आन्दोलन के सही रंग निखरे। इनमें उत्तर भारत के दलित आन्दोलन में जाटव समुदाय का आन्दोलन, अछूतानंद का आन्दोलन, भारतवर्षीय कोली सुधारसभा आदि हुये। इसी क्रम में पंजाब मंे छूआछूत विरोधी कई आन्दोलन हुए जिनका विवरण निम्न प्रकार है
आदि धर्म आन्दोलन

आदि धर्म आन्दोलन सन् 1926ई. में पंजाब में प्रारंभ हुआ। पंजाब में अछूत जातियों में आदि धर्म या आद धर्म आन्दोलन सामाजिक और धार्मिक रूप से हुआ था। बीसवीं सदी के द्वितीय-तृतीय दशक में यह आन्दोलन पंजाब के गांव-गांव तक पहुँच चुका था। इस आन्दोलन ने दलित वर्ग को समाज में गौरव और आदरपूर्ण स्थान दिलाया। इस आन्दोलन के परिणाम स्वरूप दलित वर्ग संगठित होने को प्रेरित हुआ। पंजाब में पहले से चले आ रहे समाज सुधार आन्दोलनों से यह एकदम अलग था।1
पंजाब के आदि धर्म आन्दोलन के पहले 1924ई. में मद्रास में आदि द्रविड़ महाजन सभा द्वारा आन्दोलन चलाया गया था। इसी तरह आंध्र प्रदेश में ‘आदि आंध्र आन्दोलन’ चलाया गया था। इसके परिणाम स्वरूप दक्षिण भारत के अछूत वर्ग की स्थिति में काफी सुधार आया था। इसी से सीख लेकर पंजाब में आदि धर्म आन्दोलन 1926ई. में एक सुसंगठित रूप में सामने आया। इस आन्दोलन में पंजाब की दो अस्पृश्य जातियाँ-चमार और चूहड़ा (सफाई कर्मचारी) प्रमुख रूप से शामिल थीं। इनकी पंजाब में जनसंख्या अधिक थी। इस आन्दोलन के संचालकों ने यह प्रचार करना शुरू किया कि हम ही भारत के आदि निवासी है। हमारी अपनी धार्मिक मान्यताएँ हैं। ब्राह्मण वर्ग द्वारा उन पर जबरन हिन्दू धर्म थोपा गया है।2
आदि धर्म आन्दोलन चलाने वाले नेता पहले आर्यसमाजी हुआ करते थे। लेकिन बाद में उन्होंने समाज से नाता तोड़ लिया। ये लोग दक्षिण भारत में आत्मसम्मान चलाने वाले पेरियार से प्रभावित हुये और पंजाब और उत्तरी भारत में उसी प्रकार का आन्दोलन चलाने का सोचने लगे। आर्य समाज के संबंध में उनका मानना था कि केवल शुद्धि आन्दोलन द्वारा हिन्दुओं की संख्या बड़ा रहे है। जो आन्दोलन द्वारा निम्न वर्गीय लोग हिन्दू बनते हैं, उन्हें वह यह अहसास दिलाते हैं कि वे उनसे छोटे हैं।3 आदि धर्म को मानने वाले लोगों का मानना था कि उन्हें समान अधिकार प्राप्त करने के लिए संघर्ष करना है।4
आदि धर्म आन्दोलन चलाने वाले आदि हिन्दू समाजी लोग सम्मेलन और बैठक के बाद गंाव-गांव, नगर-नगर जाकर तलाब, कँुओं पर जाकर स्नान करते एवं पानी भरके पीते थे। इस प्रकार वह उच्च हिन्दुओं पर लगाये परंपरागत प्रतिबंध को तोड़ते थे कि अछूत वहाँ पानी नहीं भर सकते।5 आदि समाज वालों को अस्पृश्यता के विरूद्ध यह एक ठोस कदम था। इस तरह अछूतों में जातीय एकता को बढ़ावा मिला। अछूतों की परस्पर अलगांव की वह प्रवृत्ति दूर हुई जो सवर्ण हिन्दुओं द्वारा उन पर लादी गई थी। पंजाब के आदि धर्म वालों ने यह भी मांग की कि, आगामी जनगणना (1931) में उन्हें हिन्दू की बजाय आदि धर्मी लिखा जाना चाहिए। इन्होंने मांग की कि, उन्हें सार्वजनिक कँुओं, तालाबों से पानी का उपयोग करने दिया जाए। उन्हें हिन्दू जमीदारों की तरह समान भूमि अधिकार दिए जाएँ। उन्हें सार्वजनिक जातीय संपत्तियों का उपयोग करने की छूट दी जाए। उन्हें ऊँची जातियों के अत्याचारों से बचाया जाए। और साथ ही उनके बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधाएँ और अधिकार दिये जाये।6
इस प्रकार आदि धर्मी आन्दोलन जोरो से प्रगति पर था। इस समाज के लोग अपने आपको आदि धर्मी मानने लगे थे और जनगणना में भी उन्होंने अपने आप को आदि धर्मी लिखाया जिससे पंजाब में अछूतों की संख्या में कमी आ गई।7 इसी दौरान जब डॉ.अम्बेडकर ‘‘लोथियन समिति’’ के लिए जनसंख्या संबंधी तथ्य एकत्र कर रहे थे तो उन्होंने सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया कि सन् 1931ई. में पंजाब के अछूतों की जनसंख्या में सन् 1911ई. के मुकाबले कमी आई है। इस संबंध में डॉ.अम्बेडकर ने कहा था कि, ‘‘इसकी वजह आदि धर्म आन्दोलन है। सन् 1931ई. की जनगणना में भाग लेने वाले आन्दोलन के कार्यकर्ताओं ने अपने लोगों और स्वयं को आदि धर्मी लिखवाया था, हिन्दू नहीं जैसा कि पहले होता आया था। अम्बेडकर ने लिखा कि सरकार ने उनकी बात मान ली है और आदेश जारी कर दिए हैं कि जो जनगणना कर्मचारी हैं वे उन लोगों को एक नये शीर्षक में आदि धर्मी लिखें जो कि ऐसा लिखवाना चाहते हैं। इससे अछूत जाति पंजाब के कई हिस्सों में बंट गई। इससे सवर्ण हिन्दुओं और अछूतों में कई स्थानों पर संघर्ष हुए। क्योंकि उच्च जाति के हिन्दू इस व्यवस्था से खफा थे। फलस्वरूप कुछ स्थानों पर अछूतों पर दबाव डाला गया कि वे अपनी पुरानी जाति पर आएं और उसे ही लिखवाएं। हालांकि बहुत से स्थानों पर उन्हें आदि धर्मी की लिखा गया और जाति नहीं लिखी गई।8
इस प्रकार पंजाब का आदि धर्म आर्थिक, शैक्षिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक अधिकारों का बहुआयामी आन्दोलन बना। इस आन्दोलन से उत्तर पश्चिमी भारत के सभी अछूतों में जोश की एक लहर सी दौड़ गई और अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए ये लोग सजग होने लगे। आगे आने वाले समय में आदि धर्मी लोगों ने काफी प्रगति की और उसकी संतानें समाज के सभी वर्गों के साथ कंधा से कंधा मिलाकर चलने लगीं। आज आदि धर्म आन्दोलन एक शोध का विषय बना और विद्धानों ने इस पर अपने अध्ययन प्रस्तुत किए। इससे प्रेरणा लेकर कई अछूतों ने अपने सुधार के लिए प्रयास किये। जिससे इस आन्दोलन की सार्थकता सिद्ध हुई।
नामधारी आंदोलन
महाराणा रंजीत सिंह के पतन के पश्चात खालसा की परम्परानुसार प्रतिष्ठा को स्थापित करने हेतु अनेक प्रसास किये गये। सिक्ख सुधार हेतु अनेक आन्दोलन शुरू किये, उनमें से नामधारी आन्दोलन एक था। नामधारी आन्दोलन बाबा रामसिंह नामधारी ने 19वी शताब्दी में आग्ल सिक्ख युद्धों के उपरान्त शुरू किया। बाबा रामसिंह खालसा फौज में एक सिपाही थे।9 वे कारीगर (शिल्पकार) जाति के थे जो निम्न जाति मानी जाती थी। नामधारी शब्द एक देवी के नाम के आधार पर लिया गया है। नामधारी आंदोलन कुछ हद तक कूका सम्प्रदाय की एक शाखा मानी जाती है। प्रारंभिक अवस्था में आन्दोलन को कुछ समस्याओं का सामना करना पड़ा परन्तु आन्दोलन ने अपने उद्देश्यों की प्राप्ति में काफी सफलता प्राप्त की।10
निरंकारी सुधारों के समान ही यह आन्दोलन भी पंजाब के उत्तर-पश्चिमी कोने में राजशाही शान-शौकत के साथ प्रारंभ हुआ। जीवन का आध्यात्मिकता पूर्वक जीने का संदेश दिया गया। सिक्ख सम्प्रदाय में व्याप्त दिखावटीपन तथा आडम्बरों को दूर करना आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य था। इन्हें कूका भी कहा गया क्योकि ये गुरूवानी को एवं शब्दों के उच्चारण को बहुत तेज आवाज में करते थे। इस प्रकार के उच्चारण को पंजाब में कूका कहते है। अतः ये लोग (नामधारी खालसा) कूका कहे गये।11
आन्दोलन के संस्थापक भाई बालक सिंह (1799-1862 ) एक धार्मिक व्यक्ति थे इनके मधुर और उत्कृष्ट व्यवहार ने बहुत से लोगों को इनका शिष्य बना लिया रामसींग भी इस महत्वपूर्ण शिष्यों में से एक थे। बालक सिंह के पश्चात रामसिंह ने ही इस आन्देालन को दिशा प्रदान की।12
नामधारी सम्प्रदाय द्वारा समाज सुधार के क्षेत्र में व्यवस्थित सुधार हेतु संस्था का एक विस्तृत संगठन बनाया गया। प्रत्येक जिले में एक प्रशासक, तहसील स्तर पर एक नेता तथा प्रत्येक गांव में एक ग्रंथी की स्थापना की गयी। एक सरकारी दस्तावेज में रामसिंह के कार्यो का वर्णन इस प्रकार हैः-13
‘‘ उसने सिक्खों में जातीय भेदभाव मिटाया,
सभी वर्गो में अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा दिया,
विधवा-विवाह को बल प्रदान किया, मदिरा व नशे का विरोध किया
तथा शिष्यों को साफ-सुथरा जीवन जीने तथा सत्य बोलने को कहा ’’
नामधारी सम्प्रदाय द्वारा समाज सुधार के क्षेत्र में किये गये प्रयास इस प्रकार है-14
सिक्खों के बीच जाति भेद तथा अस्पृश्यता जैसी बुराई को मिटाना आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य था।
अंतर्जातीय विवाह को बढ़ावा देना।
विधवा विवाह को बढ़ावा देना।
शराब एवं नशीलीं दवाओं की बिक्री पर रोक लगाना।
भीख मांगने पर प्रतिबंध लगाना।
पवित्र ग्रंथ के अनुसार कार्य करना, एकेश्वरवाद को बल देना।
पूजा पाठ आदि पर विश्वास रखना आदि।
उक्त के अलावा उन्हांेने गौ पूजा, साधारण- विवाह कार्यक्रम तथा बाल हत्या का विरोध जैसे कार्यो का भी समर्थन किया। बिट्रिश नियम कानूनों से बाबा ने कभी भी समझौता नहीं किया। उन्हांेने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की अपील की तथा स्वदेशी वस्तुओ को अपनाने हेतु लोगो को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार आन्दोलन राजनैतिक रूप से मजबूत हो गया। इन्होंने डाक व्यवस्था जो बिट्रिश सरकार द्वारा स्थापित की गई थी का भी प्रयोग त्याग दिया। स्वयं के डाकियों द्वारा काम लिया जाने लगा।
ब्रिटिश सरकार बाबा रामसींग से सशंकित रहने लगी। उनको प्रत्येक गतिविधियों पर नजर रखने लगी। बाद में उन्हे गिरतार कर विद्रोह के आरोप में अंडमान (कालापानी) भेद दिया। बाबा रामसिंह ने अपने अनुयायियों को वही से पत्र लिखे, इन पत्रो का संकलन डां. गेडा सिंह ने किया तथा इन्हें प्रकाशित भी करवाया। इन पत्रों से बाबा रामसिंह के अटूट विश्वास, व्यक्तित्व एवं अपने अनुयायियों के प्रति प्यार दिखता है । 29 नबम्बर 1885 को बाबा का देहान्त हो गया।15
अन्ततः कहा जा सकता है कि नामधारी आन्दोलन ने सिखों एवं देश के जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
कुका आन्दोलन
1840 में भगत जवाहर मल (सेन साहब) द्वारा पंजाब में कूका आन्दोलन की शुरुआत की गई। इसका उद्देश्य था कि सिक्ख धर्म में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों व अंधविश्वास को मिटाना, जैसे विधवा का कठिन जीवन, मूर्तिपूजा व मंदिरपूजा। जाति- बंधन तथा अस्पृश्यता का व्यवहार दूर करना तथा अंतर्जातीय विवाह पर लगी रोक हटाना सुधारकों ने हर प्रकार की पूजा को बंद करवा दिया। सिर्फ गुरू ग्रंथ साहब की पक्तियों पढ़ना जारी रहा। लोगों पर से ब्राह्मणों के प्रभाव को कम किया गया। इसकी सफलता इसी तथ्य से पता चलती है कि बहुत बडी संख्या में दलित अनुयायी इसमें शामिल हुए।16
संदर्भ-
1. चंद्रा आर. एवं चंचरीक कन्हैयालाल आधुनिक भारत का दलित आन्दोलन, यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नईदिल्ली, 2003,पृ0 - 100
2. चंद्रा, आर. एवं चंचरीक, कन्हैयालाल, पूर्वोक्त, पृ0 - 100
3. इकनामिक एंड पालिटिकल वीकली बंबई अंक 7-8, (1979), पृ0 256,259
4. चंद्रा आर. एवं चंचरीक कन्हैयालाल पूर्वाेक्त-पृ0 100
5. यूरलोना, ई. एस, शिडयूल्ड कास्ट इन इंडिया- पृ0 71
6. काम्बले, जे.के. राइज एवं अवेकिनिंग ऑफ डिप्रैस्ड क्लासेज इन इंडिया, पृ0 82
7. चंद्रा,आर. एवं चंचरीक कन्हैयालाल, पूर्वोक्त - पृ0 101
8. वही पृ0 101
9. इनसाईक्लोपीडिपा ऑफ दलित इन इंडिया, पृ.-173
10. वही पृ.-173
11. इन्टरनेट, डव्ल्यू डव्ल्यू डव्ल्यू डॉट सिखीविकी डॉट ओआरजी/नामधारी मूवमेंट
12. वही
13. इनसाईक्लोपीडिपा ऑफ दलित इन इंडिया, पृ.-184
14. इन्टरनेट, पूर्वोक्त
15. इन्टरनेट, पूर्वोक्त
16. संजय पासवान प्रामानसी जयदेवा, इनसाईक्लोपीडिपा ऑफ दलित इन इंडिया, पूर्वोक्त, पृ.-172
स प्राचार्य ज्ञानोदय महाविद्यालय,
जैसीनगर,सागर म.प्र.

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