हिन्दी काव्य में नई क विता

डॉ. राजेश कुमार दुबे द्यद्य श्रीमती आशा पाठक

हिन्दी क विता का विकास दो-चार वर्षों की छोटी क हानी नहीं है। अपभ्रंश-प्राक ृत से निक ल क र अवधी-ब्रज के रूप में हिन्दी क विता की धारा प्रवाहित हुई है, किन्तु सही मायनों में बीसवीं सदी के आरम्भ से ही हिन्दी क विता के रूप में का विकास हुआ जिसे हिन्दी भाषा का वर्तमान प्रचलित-स्थापित रूप क ह सक ते हैं। यूं तो क विता सदैव अपने समय से आगे की बात क हती है और नयापन से अनुप्राणित रहती है। किन्तु नाम, शीर्षक और वाद-विशेष का जामा पहनाने का काम हम क रते हैं। इसी तरह ‘नई क विता’ के विकास की पृष्ठïभूमि तैयार की । किन्तु ‘नई क विता’ किसी प्रतिक ्रिया का परिणाम नहीं है।
अनुभवों को व्याख्यायित क रना क ठिन है क्योंकि प्रत्येक अनुभव स्वतंत्र और नया होता है। अनुभवों का साझीदार बनना संभव है और ‘नई क विता’ ने इसी को ज्यादा महत्व दिया । मुक्तिबोध ने अपनी क विताओं के संदर्भ में स्वीकार क रते हुए लिखा है ‘‘मेरी क विताएं मनोविश्लेषणात्मक प्रक ्रिया की उपज हैं।’’ इससे यह तो साफ हो जाता है कि अनुभवों को यथारूप-प्रस्तुत क रना संभव नहीं है, उनका रुपान्तरण जरूर हो सक ता है। परन्तु इसे स्वीकार क रने का अर्थ है एक और खतरे का सामना क रना।
क्योंकि जो जैसा है, उसे अपने अनुभवों से जोड़ क र कुछ और क हना, यथार्थ का रुपान्तरण परिवर्तन ही होगा। ‘नई क विता’ ने इसी खतरे के आसपास अपने लिए रास्ता तलाशना शुरु किया। क वियों ने परिवेश की गहराइयों के अपने भीतर समेट क र नये सौन्दर्यानुभवों की तलाश शुरू क रते हुए क विता को तात्कालिक ता और विश्वसनीयता से जोडऩे की को शिश की । उनका उद्देश्य सीधा और सपाट था, समाज के लिए हुक्मनामा जारी क रना उनका मक सद नहीं था। वे तो अनुभवों के लेन-देन, आदान-प्रदान से सौन्दर्यानुभूति की नई जमीन तैयार क र रहे थे।
सन् 1950 के आसपास ‘नई क विता’ आंदोलन का उदय हुआ। विकास के लिए पृष्ठïभूमि पहले से तैयार थी। गांधीजी की हत्या मानों एक विचारधारा की हत्या थी और इसका प्रभाव क विता पर पडऩा स्वाभाविक था। राजनीतिक विचारधारा में आडम्बर, नारेबाजी और भीड़ का महत्व बढऩे लगा था। इसके अतिरिक्त मध्य वर्ग का तनाव, रिश्तों में बढ़ती दूरियां, आजादी के मायनों का बदलना जैसे अनेक कारण थे जिनके चलते क विता का नया स्वरूप, नये तेवर, नया ढंग बनना शुरु हुआ। दुर्बलताओं और द्वन्द्वपूर्ण स्थितियों को परत-दर-परत खोलते हुए ‘नई क विता’ ने जीवन में फैली आपाधापी को बखूबी प्रस्तुत किया।
इतिहास और पुराण को मानव की नियति और सामाजिक संघर्ष की धारा से जोड़ दिया। केवल गोस्वामी की लम्बी क विता ‘युद्ध जारी है’ में राम के माध्यम से भ्रमाकुल व्यक्ति के द्वन्द्व को व्यक्त किया गया है-
‘‘सूनी निगाह तक रहा हूं/ एक अर्से से-
दरवाजे की ओर /जहां से निक ला था मैं/
सुनहरी मृग की तलाश में / मुझे याद नहीं
मेरे साथ भाई लक्ष्मण भी था/
क हां है सोने का हिरण/
कुछ भी हासिल नहीं हो सका।’’
आदर्शवादी मर्यादा पुरुषोत्तम राम भीड़ की संस्क ृति से अपरिचित हैं। जीवन के जलते प्रश्नों ने राम को विवश क र दिया है और लक्ष्मण का अस्तित्व उनके लिए गुम हो गया है।
मध्यवर्ग आज की सामाजिक संरचना की रीढ़ है किन्तु व्यवस्था का दबाव झेलने की बाध्यता इस वर्ग की नियति है। आजादी मिलने की खुशी और मोह भंग का दु:ख दोनों का अनुभव इस वर्ग ने किया। इसी के आसपास नई क विता ने अपना विस्तार किया। ग्रामीण जीवन की विडम्बनाओं के बीच क वि खुशी के दो पल खोज लेता है-
‘‘दो नन्हीं बच्चियों को /ओस में नहायी दूब पर फुदक ती/चिडिय़ों को /दाना चुगते/ आपस में फुसफुसाते /और बिना बात हर बात पे/ खिलखिलाते.....’’
(क मलाकांत द्विवेदी)
पाब्लो नेरुदा ने लिखा है- ‘‘हीं को ई लघु ईश्वर नहीं होता है, वह एक कारीगर होता है, जिसका एक कार्य होता है, लेकिन यह कार्य अन्य कार्र्यों से अधिक महत्वपूर्ण नहीं होता सिवाय तब जब वह सामाजिक प्रतिक ्रिया की शक्तियों का सामना क रने की चुनौती स्वीकारता है। यह भी एक जोखिम भरा काम है क्योंकि वह रखवाले की हैसियत से बोलता है।’’ मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय,, सर्वेश्वर दयाल, धूमिल, राजक मल चौधरी जैसे क वि ऐसे ही कारीगर थे। राजक मल चौधरी को इंतजार है जनमानस के निषेध का विद्रोह में बदलने का ‘‘ आदमी को तोड़ती नहीं है लोक तांत्रिक पद्धतियां केवल पेट केवल/उसे झुका देती हैं धीरे-धीरे अपाहिज/ धीरे-धीरे नपुंसक बना लेने के लिए उसे शिष्टï राजभक्त, देशप्रेमी नागरिक / बना देती है/ आदमी को इस लोक तंत्री समाज से अलग हो जाना चाहिए।’’
लीलाधर जगूड़ी लोक तंत्र को नकारने वाले सबसे सशक्त हिन्दी क वि हैं-
‘‘नौक री के लिए पढ़क र/ सिफारिश से कुर्सी पर चढ़क र/ इस दरमियान मैंने जाना/ कि जनतंत्र में बिलकुल नया जमाना है। और नागरिक ता पर सबसे बड़ा रदा पाना है/ इसका जो भी मतलब हो/ इस व्यवस्था में / हर आदमी क हीं न क हीं चोर है।’’
दरअसल ‘नई क विता’ विश्वास-अविश्वास के भंवर में फंसे मनुष्य की संघर्षगाथा है। जूझते हुए मनुष्य की स्वतंत्रता और मानव की नियति को क तद्युगीन क विता क ई स्तरों पर रेखांकित क रती हुई आगे बढ़ती है-
‘‘ मैं देखता रहा/ हर तरफ ऊब थी/ संशय था/ नफरत थी/ मगर हर आदमी जरूरतों के आगे /असहाय था।’’ (धूमिल)
वास्तव में ‘नई क विता’ ने जिन्दगी की सच्चाई को पूरी शिद्धत के साथ प्रस्तुत क रते हुए सामाजिक बदलाव की अनिवार्यता को स्वीकार किया था।
संदर्भ-
1. अवधेश कुमार (संपा.) : छायावादी काव्य और इसके क वियों का अवदान
2. खां, मुहम्मद इम्तियाज, प्रयोगवाद, नई क विता एवं नकेल
3. देवताले, चंद्रकांत, मुक्तिबोध, क विता और जीवन विवेक
4. मुक्तिबोध, गजानन माधव, नयी क विता का आत्मसंघर्ष
द्यप्राध्यापक / अध्यक्ष, हिन्दी विभाग,
द्यद्यशोध छात्रा
शास. महा. को हका-नेवरा

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