स्त्री अस्मिता का संघर्ष: नये प्रश्न और नई चुनौतियां

डॉ. फ़िरोज़ा जाफ़र अली


वर्तमान देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास को गति देने में नारी का भी अहम स्थान है। दु्रत गति से विकास में सहायक आज की नारी वैदिक कालीन नारी के समकक्ष पुनः आ खड़ी हुई है। भरपूर आत्म विश्वास के साथ नारी, अस्मिता की पहचान के लिए निरंतर संघर्षरत है। जीवटता के साथ नारी अपने रूप में बदलाव कर रही है। सदियों से उत्पीड़ित एवम् दलित नारी स्वयं के लिए मानवीय दृष्टिकोण की जमीन तलाशती समाज को मानवीय बनाने की कोशिश में रत है। पुरूष मसीहा की ज़रूरत के स्थान पर स्वयं सिद्धा बनती नारी स्त्री जकड़नांे की ज़ंजीरों को तोड़ती, बंधनों तथा षोशण के खिलाफ निरंतर संघर्ष कर रही है। स्त्री अपनी पीड़ा के दर्द को दवा बनाकर स्वस्थ परिवार, स्वस्थ समाज, स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में सहयोग कर स्वयं तन-मन-धन से स्वस्थ रहना चाहती है। संघर्ष की निरंतर यात्रा में स्त्री मन, लगाव तथा अलगाव के दंश को सहती भविष्य गढ़ने की दृष्टि को बनाये रखना चाहती है। नारी, नारी दृष्टि से रचनात्मकता का सृजन करना चाहती है। सृजनात्मकता की रूपरेखा बनाने में वह समाज में निश्चित भागीदारी चाहती है। देह से परे, बुद्धि और मन की निर्भरता से, निजता व सम्मान का हक मांगती है ! स्त्री को शोषण से, दमन से, पुरूषवादी सोच से मुक्ति चाहिए, मुक्ति ऐसी, जो गरिमामय उड़ान के लिए नया आकाश प्रदान करे।

सरल, सहज, समर्पण, सेवा, त्याग के बाद भी नारी सदियों से उत्पीड़ित है। उत्पीड़न के खिलाफ नारी हर युग में खड़ी हुई है, विरोध की शक्ति होने के बाद भी शक्ति का हृास होता है और हर युग में वह सिर्फ खड़ी है, निश्चित स्थान की चाह में। स्त्री मुक्ति मांग रही है, गृहिणी, घर में काम करती स्त्री, लिखने में रत स्त्री, दफ्तर में काम करती स्त्री, कारखाने में काम करती स्त्री, मानवीय रिश्तों में बंधी स्त्री, पुरूष प्रेम के द्वन्द्व में दुविधाग्रस्त स्त्री, बौद्धिक बनती स्त्री, अक्षर ज्ञान से रहित स्त्री, साक्षर स्त्री, उच्च पदस्थ स्त्री, स्त्री........? स्त्री....? मुक्ति चाहती है। हर वर्ग, हर ज़ाति, हर धर्म की स्त्री श्रमिक है, श्रम मानसिक हो या शारीरिक। नारीवाद का नारा पूरे विश्व को चकित कर रहा है, नवीन दृष्टिकोण, नवीन जीवन शैली के साथ नारी, नारीवाद का नारा बुलंद कर रही है। स्त्री मुक्ति का प्रयास स्त्रीवादी मानसिकता और पुरूषवादी मानसिकता के द्वन्द्व में उलझी हुई है। वैश्वीकरण के दौर में स्त्री कामकाजी है। प्रायः व्यापारिक प्रतिष्ठानों में बॉस पुरूष रहता है, बौद्धिक श्रम का शोषण यहीं से प्रारंभ होता है, पुरूषवादी सोच से लड़ती नारी घर और बाहर में सिर्फ संघर्ष करती है। नारीवादी, स्त्रीवादी सोच का आखिर आधार क्या है ? यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है - पश्चिमी शिक्षा, आधुनिकता के नाम पर फूहड़ता का प्रदर्शन करके स्त्री मुक्त हो सकती है ? निषेधात्मक प्रक्रियाओं से बिल्कुल रहित नारी मुक्ति का आधार, स्त्री स्नेह और प्रेम पर आधारित है। व्यापक तौर पर नारी मुक्ति प्रतिक्रियावादी ताकतों व पश्चिमी तौर तरीकों से संघर्ष करते हुए विश्व समुदाय का हिस्सा बनना है।
मुक्ति या आजादी का आकांक्षी मनुष्य प्रारंभ से ही रहा है। जीवन की आधारभूत आवश्यकता के रूप में मुक्ति या स्वतंत्रता प्रत्येक युग में प्रासंगिक रही है, मुक्ति को परिभाषित करते हुए फ्रायड कहते हैं कि ‘‘चयन और निर्णय की स्वतंत्रता व्यक्ति के व्यक्तित्व एवम् मनोविज्ञान के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।‘‘-1
मनोवैज्ञानिक ढंग से मुक्ति को स्पष्ट करते हुए फ्रायड ने चयन और निर्णय की स्वतंत्रता को व्यक्तित्व निर्माण में आवश्यक माना है। लेकिन चयन के समय, सही या गलत का विवेक न हो तो मुक्ति वास्तव में मुक्ति न होकर अभिशाप या उच्छृंखलता बन जाती है। स्वतंत्रता के पश्चात् पुरूषों के समक्ष बराबरी से आने का हौसला नारी में हुआ। नारी मुक्ति चेतना नवीन संकल्पनाओं के साथ विकसित हुई - पुरातनता के साये में नवीनता को अपनाना ही नवीन चेतना के रूप में नारी मुक्ति चेतना बनी। विभिन्न भूमिकाओं के बीच भूमिका संकुल समूह के सदस्य बनने से पहले नारी मनुष्य के रूप में सम्पूर्ण नारीत्व को पाना चाहती है, स्व-पहचान के लिए संघर्षरत नारी आंदोलन ने नारी को पहचान की चेतना के लिए ग्राही बनाया है। पहचान की चेतना ने नारी मुक्ति आंदोलन को सजग और सचेत बना दिया है। ‘‘नारी मुक्ति आंदोलन के मूल में नारी मुक्ति चेतना है जिसने 17-18 वीं सदी में (अमेरिका) मुक्ति आंदोलन को जन्म दिया है - और संपूर्ण विश्व को प्रभावित किया है।‘‘-2
आदिमकालीन नारी से लेकर वर्तमानकालीन नारी की सामाजिक यात्रा अत्यंत कठिन, बंधनों के जकड़न से युक्त, बर्बर, मर्यादाओं, अत्याचारों और शोषण से युक्त रही है। विभिन्न पड़ाव से गुजरता, नारी मुक्ति आंदोलन 21 वीं सदी तक आ पहुँचा है। व्यभिचार की विभीषिका को झेलती नारी संघर्ष का इतिहास, अपनी कथा स्वयं कह रहा है।
नारी और दलित की श्रेणी को एक समान माना गया, भारतीय इतिहास इस बात का गवाह है। सिद्धांत और कार्य में दोनों की स्थिति में पर्याप्त अंतर तो था, परन्तु नारी विषयक सिद्धांतों मेें नारी को देवी का दर्जा दिया गया, पर स्थिति दासी की ही रही। दास और नारी की स्थिति एक समान थी। नारी दासी थी, अनुचर थी पुरूष की, पुरूष स्वामी था, रहनुमा था। जो पुरूष देखेगा, वही नारी देखेगी, पुरूष सोच, पुरूष दृष्टि पर आश्रित थी नारी। आश्रिता नारी, समाज परिवर्तन के साथ पुरूष की निजी सम्पत्ति बन गई। संतान पैदा कर, उसका पालन पोषण करना और गृह कार्य करना नारी की नियति बना दी गई। सदियों तक नारी की यथास्थिति ने उसे और अधिक लाचार बना दिया। पति की अर्द्धांगनी स्त्री, मात्र छाया बन कर रह गई। वैदिक काल की उच्च प्रस्थिति प्राप्त नारी का सच, पुरूष व्यवहार के समक्ष उजागर हो जाता है। संरक्षण के नाम पर क़ैद कर दी गई नारी के समस्त अधिकारों को पुरूषवादी सोच ने संरक्षित कर दिया। चाहे चीरहरण हो, पटरानी की भूमिका हो, कामिनी हो, आमोद प्रमोद का साधन हो, गणिका हो, देवदासी हो हर स्थिति में नारी की भूमिका को भोग-लिप्सा की वस्तु के रूप में आंका गया। रीतिकाल की नारी, भक्तिकाल की नारी से भिन्न थी, मध्यकाल में नारी को गरिमामय स्थान प्रदान करने का प्रयास किया गया। मध्यकालीन नारी के असहाय स्थिति को रेखांकित करते हुए मैथिली शरण गुप्त ने नारी को अबला कहा। अबला किस रूप में -शारीरिक ? मानसिक ? मध्यकालीन नारी अपने असहाय निरूपाय रूप को सच मानकर दासता को प्रारब्ध मान लिया, परन्तु राष्ट्रीय आंदोलन के साथ महात्मा गांधी की सामाजिक न्याय की प्रक्रिया ने स्त्री को पुरूष के बराबर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन ने नारी को समानता का स्थान प्रदान करने के लिए संगठित किया। संघर्ष से समाज व राष्ट्र के साथ नारी की स्थिति भी बदली। यथार्थ बोध ने नारी चेतना को गति प्रदान किया। भारतीय नारी जागरण का कार्य इसी काल में राजा राम मोहन राय, विवेकानंद, तिलक, दलपतराय, दुर्गाराम, मेहता जैसे पुरूष समाज सुधारकों द्वारा प्रारंभ किया गया। राजा राम मोहन राय द्वारा प्रारंभ किये गये इस सामाजिक आंदोलन में नारी की दुर्दशा को आर्थिक कारणों से जोड़ा गया। पुरूषों के द्वारा प्रारंभ किये जाने के कारण भारतीय नारी मुक्ति आंदोलन पाश्चात्य नारी मुक्ति से अलग है। लेखिका डॉ0 शीला रजवार के अनुसार ‘‘सामाजिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के वैभिन्य के कारण पाश्चात्य जगत के नारी मुक्ति आंदोलन से इसमें मूलभूत अंतर यह रहा है कि यह लड़ाई भारतीय नारी द्वारा अपने व्यक्तित्व के लिए नहीं बल्कि सामाजिक उत्थान के लिए विविध समाज सुधारकों द्वारा लड़ी गई।‘‘-3
पश्चिमी नारी आन्दोलन में प्रेम, विश्वास, वफादारी, नैतिक, अनैतिक जैसे शब्द अर्थहीन हो गए-पश्चिम का अन्तर्द्वन्द्व-अर्थ और भावना, स्वतंत्रता और उच्छृंखलता, सेक्स और प्रेम, रति और मनोरंजन के बीच उलझा हुआ है।
भारत गाँवों का देश है ज़ाहिर है कि शहरी और देहाती स्त्रियों में पर्याप्त अंतर है। दोनों के रंग-ढंग में जमीन आसमान का फ़र्क़ है। शहरी स्त्रियां पश्चिमी रंग में रंगने को उद्यत हैं तो गांव की स्त्री अभी भी रूढ़ परम्पराओं के साथ है। दोनों की स्वतंत्रता तथा मुक्ति में असमानताएं हैं। क्यों ? स्त्री तो बहरहाल दोनों ही वर्ग है- आर्थिक रूप से स्वतंत्र शहरी महिला, की मुक्ति एवम् अर्थाभाव को लेकर ग्रामीण स्त्री मुक्ति का आधार सम्पन्नता और विपन्नता के बीच है। पुरूष ‘मद‘ में चूर, शुकून‘ ढूंढ़ लेता है। परन्तु अर्थाभाव से, ग्रस्त स्त्री कहाँ जाए ? अर्थव्यवस्था का असमान स्तर नारी मुक्ति के स्तर को बदल देता है। ‘‘भारत के शहरों में शायद यही आर्थिक अधीनता पराधीनता और मुसीबत की जड़ मानी जाती है।‘‘-4 आज भी यही सोच स्त्री संपत्ति की भावना का विकास करती है और स्त्री बिना व्यक्तित्व के रह जाती है। स्त्री का पुरूष पर यह आरोप कि, स्त्री पतन, कुत्सा, दुर्दशा का मूल कारण, पुरूष है। सिर्फ विद्वेष या आरोप बनकर रह जाती है। आरोप प्रत्यारोप के सिलसिले के बीच संघर्ष चलता रहा है।
साहित्यिक विधाओं, यथा कविता, उपन्यास, कहानी में नारी संघर्ष का जीवंत चित्रण देखने को मिलता है। घर, परिवार, आदर्श के अतिरिक्त नारी की समाज में क्या भूमिका है, इस विषय पर प्रेमचंद यशपाल, जैनेन्द्र, कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी, उषा, प्रियम्वदा, नमिता सिंह, शिवानी, मालती जोशी, मृणाल पाण्डे ने सामाजिक जटिलता तथा संकीर्णताओं के बीच नारी को गरिमामय रूपता प्रदान करने का सफल प्रयास किया। नारी को वस्तु न मानकर, एक व्यक्तित्व के रूप में उसके विविध चेतना के स्तरों का चित्रण- महिला साहित्यकारों द्वारा किया गया। नारी संघर्ष का चित्र जीवन तथा साहित्य दोनों में किया गया- धर्म के नाम पर नारी कभी देवदासी तो कभी नगर वधु बनकर प्रताड़ित होती है, कभी गणिका तो कही कुटनी बनाकर नारीत्व को निंदनीय बनाया गया। मध्यकाल की कंचन (धन) की पर्यायवाची बन चुकी नारी के सामान्ती सोच का विरोध, संतों के द्वारा किया गया। भक्तिकाल के कवियों के द्वारा सामंतों के भोग लिप्सा की आलोचना की गई। भक्तिकाल में ब्राम्हणवाद, कुलीनता और धार्मिक अनाचारों का संगठित होकर विरोध किया गया है। सामंती संस्कृति को जन विरोधी बताते हुए समानता मूलक दर्शन का सूत्रपात किया गया। ‘जाति-पाँति पूछै नहिं कोई। हरि कँू भजै सो हरि कौ होई‘ का अलख जगाते हुए संतों के द्वारा नवजागरण का सूत्रपात किया गया। इसी समानता मूलक दर्शन से नारी को गरिमामय स्थान प्रदान करने का प्रयास किया गया।
कविताओं में सर्वप्रथम नारी मुक्ति और समानता का पहला प्रयास सूरदास ने अपने काव्य के माध्यम से किया। ‘‘सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों को एक वस्तु के स्थान पर व्यक्ति के रूप में चित्रित किया है। नारी के स्वाभिमान और गरिमा की रक्षा जिस प्रकार सूरदास ने की है भारतीय साहित्य में ऐसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। सामंती नैतिकता और जड़ संस्कृति, पतिव्रत धर्म के बंधनों का गोपियाँ अतिक्रमण करती हैं, वे पुरूष के समान ही (धार्मिक आवरण में ही सही) सामाजिक क्रियाकलापों में हिस्सा लेती हैं। कृष्ण को वे सखा, मित्र और सहयोगी के रूप में स्वीकार करती हैं, लेकिन मथुरा के राजा के रूप में अस्वीकार करती हैं - हमें राजा नहीं सखा कृष्ण की आवश्यकता है। वे सम्मानपूर्वक समानताा का दर्जा तो स्वीकार करती हैं, लेकिन सेविका और स्वामी का नहीं। मेरी दृष्टि में नारी मुक्ति और समानता का यह पहला प्रयास है।‘‘-5
स्त्री साहित्य या स्त्रीवादी साहित्य स्त्री रचित होने के कारण स्त्री हितों एवम् स्त्री मुक्ति का पक्षधर होता है। स्त्रीवादी चिंतन की, दृष्टि से लिंग भेद, स्त्री-पुरूष के बीच की संरचनात्मक असमानता की बुनियाद मानी जाती रही है। स्त्रीवादी पक्षधरों ने स्त्री-पुरूष के शारीरिक अंतर को बहस का मुख्य मुद्दा बनाया है। स्त्री प्रकृति की स्वाभाविकता तथा पुनरूत्पादन की प्रकृति ही उसे पुरूष की तुलना में समर्पणकारी बनाती है। ‘‘हकीकत में स्त्री एक जैसी कभी नहीं रही। एक संस्कृति की स्त्रियों में विभिन्नताएं मिलेंगी, एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति के बीच में भी भिन्नता को सहज देखा जा सकता है।‘‘-6 वस्तुतः स्त्री अस्मिता को माँ, बहन, बेटी, बीवी, रखैल, वेश्या की कोटियों से बाहर लाकर एक स्त्री के रूप में देखे जाने की मानसिकता का प्रादुर्भाव स्त्री साहित्य से ही हुआ है। साहित्य पुर्नसृजन करने के गुण के साथ, विभिन्न मापदण्डांे के साथ व्यापक अर्थ में भूमिका का निर्वहन तो करता ही है इसी स्त्री साहित्य की सृजन की प्रथम कड़ी के रूप में मीरा नारी मुक्ति का प्रतीक बन कर सामने आई। एक सामंती परिवार में जन्म लेने के बाद भी मीरा ने सामंती जड़ नैतिकता और नारी को दासी समझने वाली संस्कृति को, सिद्धान्त और व्यवहार में चुनौती दी। मीरा का साहित्य स्त्री साहित्य के शीर्ष पर स्थान रखती है। मीरा ने अपने साहित्य में से ये सिद्ध कर दिया कि स्त्री तब भी पुरूष की सहयोगी और साथी के रूप में महत्वपूर्ण थी। मीरा का साहित्य नारी मुक्ति का सबसे जीवन्त उदाहरण है।
महिला उपन्यासकारों ने नारी समानता और नारी मुक्ति पर आरम्भ से ही अपनी अभिव्यक्ति दी है, तमाम सामाजिक जटिलताओं के बीच नारी को एक व्यक्तित्व और गरिमा प्रदान का प्रयास महिला लेखिकाओं के द्वारा किया गया है। नारी के विविध चेतना के स्तरों का चित्रण, महिला लेखिकाओं के द्वारा कहानी के माध्यम से किया गया। हिन्दी कथा-साहित्य के प्रारंभिक युग के लेखन में पुरूषों का वर्चस्व रहा है, किन्तु स्वतंत्रता के बाद महिला लेखिकाओं ने भी पूरे दम-खम के साथ कथा लेखन के क्षेत्र में अग्रिम पंक्ति में जगह बनाई। काव्य एवम् उपन्यास के समान कहानी के क्षेत्र में भी कथा लेखिकाओं ने, अनमेल विवाह, अनैतिक रूढ़ियों विधवा समस्या, बहु विवाह, आदि समस्याओं को निपुणतापूर्वक उठाया। नारी जीवन की विविधता के चित्रांकन करने में, नारी जीवन की समस्याओं के अंकन में, नारी संघर्ष के मनोवृत्तियों को उभारने में, कथा लेखिकाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। मार्क्स का पूंजीवाद, फ्रायड के मनोविश्लेषणवाद को ग्रहण करके विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक, उपदेशात्मक, पारिवारिक, अन्याय, निष्ठा की कहानियाँ महिला लेखिकाओं द्वारा लिखी गई।
बड़ी संख्या में नारियाँ समाज, राष्ट्र और स्वमुक्ति के लिए घरों से बाहर निकली। मानसिक बदलाव के साथ कथा लेखिकाओं के वर्चस्व ने समाज में नारी के महत्व, आवश्यकता, अधिकार, परिवार, विवाह, दाम्पत्य जीवन और उनसे संबंधित कई समस्याओं को विशिष्ट दृष्टिकोण प्रदान किया। महिला कथा साहित्य के निरंतर अभिवृद्धि के लिए महिला कथाकारों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जिनमें कृष्णा सोबती, मन्नू भण्डारी, शशिप्रभा शास्त्री, मृदुला गर्ग, चित्रा मुदगल, मृणाल पाण्डे, मंजुला भगत, उषा महाजन, मालती जोशी, मेहरून्निशा परवेज, उषा प्रियम्वदा, ममता कालिया, शिवानी, उषा पुरी, इन्दु बाली आदि कथा लेखिकाओं ने नारी पुरूष संबंधों, उनकी कुंठाओं वर्जनाओं और परिवेश को विश्लेषित किया।
परिवर्तन की गति का दामन थामे समय सृष्टि के शाश्वत नियम को क्रियान्वित करता है। इसी क्रियान्वयन में समाज भी समय के साथ बदलता है। वैदिककालीन नारी से लेकर आधुनिक युग की नारी की संघर्ष यात्रा कभी तीव्र तो कभी धीमी गति से परिवर्तित होती रही है। समाज को प्रतिबिम्बित करता साहित्यपूर्ण व्यापकता और परिणाम के साथ समाज को आइना दिखाता रहा है।
पुरातन नारी विद्रोह की गाथा, आधुनिक नारी मुक्ति तक आते आते और प्रबल हो गई है। केवल सामाजिक जीवन में ही स्वतंत्रता नही, आज, स्त्री को राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक जीवन में भी स्वतंत्रता पूरे आत्म सम्मान के साथ चाहिए। नारी विद्रोह ने समाज को और पुरूषवादी सोच को ये बता दिया है कि वो अधिकार छीनना भी जानती है। उसने बता दिया है कि नारी भावना को कोरी भावुकता समझ कर उसकी उद्बुद्धमति की अब उपेक्षा नहीं की जा सकती। आधुनिक नारी पुरूषवादी सोच के प्रति विद्रोह करती है। स्वतंत्र, व्यक्तित्व को स्थापित करने के लिए, वह न केवल जीवन में पति चयन, मित्र चयन में स्वतंत्रता चाहती वरन् प्राचीन संकीर्ण जीवन मूल्यों से मुक्ति भी चाहती है। प्रश्न यह उठता है कि नारी चाहती क्या है? मुक्ति का अर्थ क्या है ? जीवन मूल्यों को तिलांजली देकर क्या नारी स्वतंत्रता का उपभोग सम्मानपूर्वक कर सकती है ? क्या उच्छृंखलता के पाप बोध को नैतिकता के आवरण में ढांक कर नारी उच्च प्रस्थिति की हकदार है ? आधुनिक शिक्षा, पश्चिमी करण, संस्कृति करण आदि के परिणाम स्वरूप हुए परिवर्तनांे के साथ क्या नारी, गरिमामयी स्थान को बनाये रख सकती है? प्रत्येक स्त्री मुक्ति के पक्षधर नारियों को स्वयं से इन प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ना होगा।
एक भारतीय नारी की छबि को बनाये रखने के लिए सामाजिक, आर्थिक विषमताओं से जन्मी, मानसिक शारीरिक यंत्रणाओं से मुक्ति चाहिए या भारतीय संस्कारों से ? यंत्रणाओं को झेलने की विवशता, परम्परागत बंधनों से मुक्ति की आकांक्षा, आत्म सम्मान की चाह, स्वयं की पहचान के अन्तर्विरोधों से सामना करती हुई नारी को आज दुस्साहस की जरूरत है, पूरे साहस के साथ, स्वयं को अबला की भूमिका से बाहर निकालने का और भारतीय आदर्शो से युक्त पुरूषवादी संकीर्णताओं से मुक्त, सबला नारी बनने का। नारी मन की क्षमताओं को उच्चतम स्थान पर प्रतिस्थापित करके ही नारी मुक्त हो सकती। स्वतंत्र व्यक्तित्व को फलीभूत कर सकती है। यह कटु सत्य है कि आज भी, घर-परिवार, समाज, सामाजिक भूमिका, संस्कार, मूल्य के बीच सामंजस्य बिठाने में नारी की भूमिका को गहरे अन्तर्विरोध का सामना करना पड़ रहा है। पति, बच्चे, परिवार, परिवार से बाहर नारी की भूमिका को उपभोक्तावादी संस्कृति ने प्रभावित किया है। आज प्रत्येक नारी के समक्ष ये चुनौती है कि वो उपभोक्तावादी संस्कृति को दर किनार कर अपनी अस्मिता और व्यक्तित्व की स्वतंत्रता को बनाए रखे- अस्मिता के साथ स्वतंत्रता ही स्त्री को समानता और मुक्ति के लक्ष्य तक पहुंचा सकता है।
संदर्भ ग्रंथ
1. द एनसाइक्लोपीडिया ऑफ फिलोसॉफी, एच.जे. आइसेंक, पृष्ठ - 385
2. नारी चेतना और कृष्णा सोबती के उपन्यास, डॉ0 गीता सोलंकी, पृष्ठ -14
3. नारी मुक्ति और नारी मुक्ति आंदोलन, कृष्णा सोबती, पृष्ठ - 29
4. नारी, जैनेन्द्र कुमार, पृष्ठ - 44
5. वर्तमान हिन्दी महिला कथा लेखन और दाम्पत्य जीवन, साधना अग्रवाल - भूमिका
6. स्त्रीवादी साहित्य विमर्श- जगदीश्वर चतुर्वेदी, पृष्ठ - 07
स सहायक प्राध्यापक (हिन्दी)
कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय,
भिलाई नगर, दुर्ग. (छत्तीसगढ़)

1 टिप्पणी:

  1. आप का लेख बहुत अच्छा लगा आज के समाज में आप के जैसे विचारों की आवश्यकता है मैं आप के विचार से बहुत प्रभावित हुई.

    जवाब देंहटाएं

Home About Us Admission Courses Contact Us l Email l AQAR Report
Copyright 2008. Kalyan Mahavidyalaya. All Rights Reserved.