“समकालीन कहानी आलोचना और स्त्री विमर्श”

डॉ.तीर्थेश्वर सिंह

सारांश
ख् ”समकालीन हिन्दी कहानी में अनेकानेक विविधताएँ तो देखने को मिलती हैं लेकिन कहानी आलोचना में वह विविधता नहीं है क्योंकि कहानी आलोचकों ने समकालीन कहानी परिदृश्य का साक्ष्य ईमानदारी से सामने नहीं लाया है। आलोचकों ने कहानी के माध्यम से जो आलोचना प्रस्तुत की है वह कथा से कहीं भी मेल नहीं खाती इसे देखकर ऐसा लगता है कि कहानी आलोचकों ने कहानी के विषय में पूर्व निर्धारित प्रतिमान या खेमे के माध्यम से पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर कोई स्थापना कर ली हैं इस बात में कोई संदेह नहीं कि समकालीन हिन्दी कहानी में महिला रचनाकारों ने नारी मन की ग्रंथियों को बड़ी ईमानदारी से खोला है और यही दिखाया है कि वे अब जाग चुकी हैं और किसी भी हालत में अपने हक से पीछे नहीं रहने वाली। नारी पीड़ा और नारी हक दोनों एक साथ प्रस्तुत हुआ है। दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श और नारी विमर्श साहित्य के केन्द्र में है। हिन्दी कथा साहित्य के परिदृश्य को देखकर यह सच्चाई साफ हो जाती है।“,


समकालीन परिवेश ने कहानी के तथ्य, कथ्य और रूप संरचना को एक तरफ प्रतिमान तो दिया है साथ हो समकालीन कहानी में काल या परिवेश का दबाव अनेक आयामों उभरकर सामने हैं जिससे समकालीन कहानी अपने समय के यथार्थ का प्रतिरूप बनकर सामने आते हैं लेकिन एक तथ्य यह भी है कि कहानी आलोचकों ने समकालीन रचना परिदृश्य का साक्ष्य ईमानदारी से सामने नहीं लाया है। समीक्षा के द्वारा आज के कथा लेखन की जो तस्वीर सामने आती है वह कहानियों की दुनिया से मेल नहीं खाती है। इसमें कोई शक नहीं कि समकालीन कहानी आलोचना में सृजन के वैविध्य को रेखांकित न कर पाने के कारण आलोचना में एक गतिरोध पैदा हुआ है।
सामान्य तौर पर यह देखा जाने लगा है कि आज का आलोचक किसी कहानीकार के आरंभिक लेखन के आधार पर एक राय निर्धारित कर लेता है और उस राय को उसके बाद की कृतियों में भी लागू कर देता है वह इस पड़ताल की भी जहमत नहीं उठाता कि कहानीकार का शेष लेखन इस राय को झुठला सकता है । कभी ऐसा भी होता है कि आलोचक कहानीकार की महज निजी वैचारिक सम्बद्धता के आधार पर उसके लेखन की निंदा या प्रशंसा कर देता है एक ओर दुःखद पक्ष यह है कि एक मंच या समूह से दूर रहने के कारण एक रचनाकार, को पढ़ने की जहमत आलोचक कदापि नहीं उठाता।
परिणामस्वरूप कई बाद कई अच्छे उभरती प्रतिभा के साथ न्याय नहीं हो पाता। यह आचरण ईमानदार समालोचना के दायरे में कदापि नहीं आता। होना तो यह चाहिए कि रचना ही आलोचना का मापदण्ड तय करें और रचना की जब हम मूल्यांकन करने चले तो हमारी दृष्टि रचना के मूल कथ्य और शिल्प हो। किसी पूर्व निर्धारित मापदण्ड कदापि नहीं होनी चाहिए। इसमें अंग्रेजी के प्रख्यात रचनाकार टी.एस. इलियट भी मानते हैं कि ”एक आलोचक को अपने पूर्वाग्रह से हमेशा मुक्त होना चाहिए साथ ही उसे अपनी निजी सनकों से प्रभावित नहीं होना चाहिए।“ इस सन्दर्भ में जानकी प्रसाद शर्मा कहते हैं कि ”आज कहानी को उसकी अपनी जमीन से देखने की बजाए इस या उस परिधि में समझने की प्रवृत्ति जोरों पर ह,ै ऐसे में कहानी के बजाए अवान्तर बहसें केन्द्र में आ जाती हैं। कहानी से संवाद के बीच हमारे पूर्वाग्रह आड़े आ जाते हैं यद्यपि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि रचना के आस्वाद के दौरान पाठक या आलोचक के मन में एक विवेक दृष्टि सक्रिय रहती है लेकिन यह अपेक्षा भी की जाती है कि उसमें रचना को उसकी दुनिया के बीच समझने की धैर्य हो। युवा और युवतर पीढ़ी के लेखन से आलोचना की दूरी बढ़ी है। कविता की बनिस्पत कहानी आलोचना में ज्यादा ही, जिस तनाव और बेचैनी से गुजरकर नई पीढ़ी के कहानीकार लिख रहे हैं उससे दो चार होने का जोखिम आलोचना नहीं उठाना चाहती। जब हम कहानी की चर्चा करते हैं तो बीते कल के सृजन के प्रति अभिभूत और नई रचनाशीलता के प्रति शंकालू नजर आते हैं। कुछ लोगों को प्रेमचंद और यशपाल के बाद से विरानी ही महसूस होती है। न तो यह परम्परा की सम्मान है और न समकालीनता से जुड़ाव; बल्कि यह नई रचनाशीलता से किनाराकशी की एक सुविधाजनक तरीका है।“1
इस संदर्भ में मोहन राकेश का कथन बहुत ही प्रासंगिक और रेखांकित करने वाला है। ”कहानीकारों को इसकी कतई शिकायत नहीं कि पुरानी पीढ़ी के आलोचकों ने उन्हें मान्यता नहीं दी, बल्कि शिकायत उन आलोचकों को है कि नये लोगों ने उनसे मान्यता क्यों नहीं चाही? एक पूरी की पूरी पीढ़ी बिना उनकी तरफ देखें न सिर्फ अपने को प्रतिष्ठित कर लें, बल्कि एक चुनौती बनकर उसकी मान्यताओं के सामने खड़ी हो जाये यह उनके अह्म को कैसे गवारा हो सकता है, परन्तु यह सोचने का अवसर उन्होंने अपने को नहीं दिया कि जिस पीढ़ी के साथ उनका कोई मानसिक सामंजस्य नहीं जिनके कृतित्व का संस्कार उनके मूल्यांकन के संस्कार के साथ कहीं मेल नहीं खाता वह पीढ़ी किस आधार पर उनकी मान्यता के महत्व को स्वीकार करेगी, विशेष रूप से तब जबकि उन्होंने अपनी ग्रहणशीलता पर पूर्वाग्रह की सांकल लगा रखी हो। उस पीढ़ी के कितने आलोचक है जिन्होंने नयी पीढ़ी की रचनाओं को आग्रह के साथ पढ़ा और उनकी पृष्ठभूमि तक पहुँच पाने का प्रयत्न किया है? उन्हें कमेटियों की सदस्यता युनिवर्सिटी के पर्चो और थीसिसों के मार्किंग और अगली बड़ी नौकर की तलाश जैसे महत्वपूर्ण कामों से फुरसत ही कहाँ मिलती है कि वे नयी रचनाओं को पढ़कर उनके साथ नाममात्र का भी परिचय बनाये रख सके। उनके लिए इतना ही बहुत है कि किसी तरह वक्त निकालकर वे अपनी पीढ़ी के लेखकों के काव्य महाकाव्य पढ़ लेते हैं और उन पर वही समीक्षाएं आज भी लिख देते हैं, जो बीस साल पहले किन्ही अन्य काव्यों एवम् महाकाव्यों पर लिखी थी। इतनी व्यस्त जिंदगी में उनमें और कुछ उम्मीद रखना सरासर ज्यादती है।”2
हिंदी कहानी पर समकालीन समीक्षकों में डॉ.नामवर सिंह, डॉ.विनय मोहन, डॉ.इन्द्रनाथ मदान, डॉ. बच्चन, डॉ.रामस्वरूव चतुर्वेदी, डॉ.देवी प्रसाद अवस्थी, डॉ.गंगा प्रसाद विमल आदि ने विस्तार से अपनी बात कही है हालांकि कहानी आलोचना पर हर की समीक्षा पर कुछ न कुछ भी टिप्पणी किसी अन्य ने की इसका मतलब ये है कि हिंदी आलोचना पर हिन्दी कविता आलोचना जैसी गंभीर धारा नहीं देखने को मिली। यह केवल भारतीय संदर्भ में नही ंपाश्चात्य संदर्भो में भी यह चीज हमें देखने को मिलती है। इस संदर्भ में कथाकार एन्तोन चेखव को शिकायत थी कि ”उनके समकालीन आलोचक कहानियों की चर्चा करते समय बहुत से लेखकों को हमेशा एक ही सूची में क्यों रख देते हैं? गोर्की, व्यूनिन, कोरीलेन्को, फोटापेको तथा चेखव का उल्लेख एक ही सूची में क्यों किया जाता है, चेखव की कहानियों की चर्चा अलग से करने की जरूरत क्यों नहीं समझी जाती इस संदर्भ में बलराम की टिप्पणी प्रासंगिक है “गनीमत थी कि समकालीन रूसी आलोचक चेखव का नाम अपनी सूची में रखने की सदाशयता तो बरतते थे, पर हिंदी के समकालीन आलोचक इस संदर्भ में इतने अभिमानी है कि प्रेमचंद तो प्रेमचंद मुक्तिबोध तक को मुक्तिबोध बनाने की सेहरा अपने सिर बांधे घूम रहे हैं और प्रखर रचनाकारों तक नाम नहीं गिनाते। पार्टी और संघो से जुड़े आलोचक तो कुछ ज्यादा ही कोल्हू के बैल हैं जो सिर्फ अपनी पार्टियों और संघों के कच्चे पक्के रचनाकारों की सूची का बोझ ढ़ोने के लिए अभिशप्त हैं शायद यही कारण है कि कुछ एक समालोचकों को छोड़कर समकालीन हिंदी कथा परिदृश्य में विश्वसनीय आलोचकों का अकाल पड़ा हुआ है।“3
हिंदी कहानी आलोचकों में डॉ नामवर सिंह, सुरेन्द्र चौधरी, डॉ. देवीशंकर अवस्थी, मधुरेश, विजय मोहन सिंह, डॉ. प्रभाकर क्षोत्रिय तथा डॉ. सुधीश पचौरी हिंदी आलोचना पर बहुत कुछ लिखा है। डॉ. नामवर सिंह ने नई कहानी शीर्षक से हिन्दी कहानी आलोचना पर विस्तार से विचार किया है लेकिन उनकी स्थापनाओं को लेकर कई समीक्षक अपनी असहमति व्यक्त करते हैं इसके अलावा डॉ. देवीशंकर अवस्थी और सुरेन्द्र चौधरी ने भी हिन्दी कथा को लेकर कई वैचारिक स्थापनाएँ की। इन तीनों की कहानी आलोचना पर एक एक किताब है जो हिन्दी कहानी आलोचना के लिए महत्वपूर्ण आधारभूमि का काम कर रही है। इस संदर्भ में बलराम जी की टिप्पणी महत्वपूर्ण है, ”जहाँ तक कथा समीक्षा में काव्य समीक्षा के औजारों के प्रयुक्त होने की बात है किसी हद तक तो वे होगें,उससे न तो बचा जा सकता है और न ही बचने की जरूरत है। ................। कथा समीक्षा के लिए सारी की सारी टर्मिनोलॉजी नई ही नई होनी चाहिए, यह मांग मुझे तर्कसंगत नहीं लगती, लेकिन कहानी को काव्य समीक्षा के पैमान से मापने को भी विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता .........। डॉ. देवी शंकर अवस्थी, सुरेन्द्र चौधरी और डॉ. नामवर सिंह की प्रारंभिक कोशिशे इसलिए इतनी महत्वपूर्ण और कथा समीक्षा के सौन्दर्य शास्त्र की आधारभूमि है।
नामवर जी ने अपने वक्तव्य में स्वीकार किया कि साहित्य के कोई स्थापित मापदंड नहीं हो सकते, आलोचक लेखक को कोई दिशा नहीं दे सकता। आलोचकों को फतवेबाजी से बचना चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि रचना को आलोचना की सदैव जरूरत रहेगी यह अलग बात हैं कि इसमें रचना का स्थान हमेशा पहला ही रहेगा। रचनाकार और आलोचक हमेशा से अपने समय और समाज के न केवल जागरूक पड़ताल करता है, बल्कि पतनशील प्रवृत्तियों और स्थितियों के समय समय पर विरोध करने वाले हैं। हिन्दी आलोचना के समकालीन स्वरूप को देखें तो यह साफ होता है कि वह आलोचकों के अतिवादिता का शिकार होती रही, यही वजह है कि हिन्दी कथा आलोचना के लिए कोई सार्थक बहस नहीं हो पायी।
हिन्दी कहानी की शुरूआत किस्सागोई की प्रवृत्ति से भले हुई , परन्तु नई कहानी के लेखन के साथ उसमें बदले हुए परिवेश को अधिक तटस्थता और ईमानदारी से उद्घाटित करने का आग्रह बड़े संकल्पों के साथ दिखाई पड़ता है। रचना तकनीक में भी एक बड़ा उलटफेर नई कहानी के बाद देखा जा सकता हैं। इस संदर्भ में डॉ. लक्ष्मीलाल का यह कथन दृष्टव्य है ”आज की हिन्दी कहानी परम्परा अर्जित उपलब्धि है नई कविता की तरह नई कहानी परम्पराज्यूत आंदोलन नहीं है, वह परम्परापुष्ट, नई रूढ़ियों की रूढ़ि है, जिसने कहानी कला को वास्तव में एक नई दिशा दी है आज की हिन्दी कहानी का मैं यही सबसे बड़ा सौभाग्य मानता हूँू कि वह कविता की तरह परम्पराच्यूत नहीं है जीवन से कहीं नहीं है वह अपने पूरे ऐतिहासिक दाय को स्वीकार कर जीवन की बहुलता सम्पर्कजन्य वास्तविकता की आधारशिला पर वस्तु और उसी से अर्जित शैली के साथ ही साथ विकसित हो रही है।“5
समकालीन कहानी ने अपने युग के परिवेश तथा जीवन अनुभव तो उद्घाटित किया ही साथ ही कथाकार की संवेदना का एक प्रतिक्रियात्मक रूप भी उपस्थित किया। इसमें एक ओर परम्परा है तो दूसरी ओर आधुनिकता। इसमें आम आदमी की खोज है तो यथार्थ के अनछुए आयाम, महानगरी जीवन के विविध चित्र भी। इधर की कहानियों ने संबंधों की गहरी तलाश की। हिमांशु जोशी की ’अंतहीन’ की वृ़द्धा नायिक जो गॉवों में अकेली रहती है उसका चित्र है, ”........ ऐसी फटी धोती। इतनी काली। जर्जर देह। बुझी आंखें। अधखिचड़ी केश। नंगे पाँव। झुर्रियों भरे कपालों पर आँसू झलकते। न जाने वृद्धा को यह पाप कब तक धोना पड़ेगा?
समकालीन कहानी का एक महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि वह उपलब्ध यथार्थ से असहमति जताती है, परन्तु अपेक्षित यथार्थ के लिए प्रयत्नशील होकर समाजिकता के दायित्व का निर्वाह करती है। इसमें कोई शक नहीं कि समकालीन कहानी में यथार्थ की पड़ताल की है। इस संदर्भ में कमलेश्वर कहते हैं कि ”बड़े पैमाने पर चल रही यथार्थ की लड़ाई में शामिल है कहानियां ....... ये मुजस्सीम आदमी की बदली हुई धारणाओं, उसके प्रश्नों और चिंताओं की लिखित तहरीर ही नहीं बल्कि समय में लिखे गये उसके फैसलों की यथार्थ प्रतिलिपियाँ भी हैं ...... ये कहानियां आम आदमी के समय संदर्भ में जन्म लेने वाले जलते प्रश्नों के यथार्थ मूलक दुविधारहित कदम है ...... इस प्रकार ये कहानियाँ आम आदमी की लड़ाई के कदम है जो विभिन्न मोर्चो पर व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहा है।“6
हिन्दी कहानी पर पुष्पपाल सिंह के ’समकालीन कहानी युगबोध का संदर्भ’ ”समकालीन कहानी, रचना मुद्रा, डॉ.धनंजय वर्मा का ’समकालीन कहानी, दिशा और दृष्टि रचना हिन्दी कहानी आलोचना को आगे बढ़ाने का काम करती है साथ ही पत्रिकाओं में आलोचना, कथादेश समकालीन साहित्य सारिका, हंस आदि के अंक में हिन्दी कहानी आलोचना को आगे बढ़ाने का महत्वपूर्ण काम लेखकों रचनाकारों ने किया है। हिन्दी कहानी आलोचना को न केवल समीक्षकों ने आगे बढ़ाया है बल्कि हिन्दी कहानी आलोचकों को आगे बढ़ाने में कहानीकारों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका की निर्वाह किया। प्रेमचंद, जैनेन्द्र, हजारीप्रसाद द्विवेदी, कमलेश्वर, शैलेष मटियानी, रामदरश मिश्र मृणाल पांडे आदि ने भी आगे बढ़ाने का काम किया है।
हिन्दी कहानी में नारी विमर्श के बहुविध रूप देखने को मिलते हैं समकालीन भारत समेत विश्व भर में स्त्री स्वतंत्रता और अस्मिता का सवाल आज के सबसे ज्वलंत सवालों में एक है। आजादी के बाद नारी अस्तित्व के नये प्रतिमानों की खोज हुई। नारी ने अपने अस्तित्व की पहचान शुरू की तथा अंधानुकरण के स्थान पर उसमें तार्किक बुद्धि बढ़ती चली गई। पश्चिम में नारी मुक्ति आंदोलन 1960 के आसपास प्रारंभ हुआ और भारतीय समाज में आठवें दशक के आते आते हिन्दी पत्रकारिता में नारीवाद के पक्ष में काफी बहस हुई। परिणाम ये हुआ कि साहित्य और पत्रकारिता में नारी मुक्ति के नये आयामों पर धारदार बहसों तथा प्रखर नारी चेतन के स्वरों को उठाया जाने लगा। हिन्दी कथा साहित्य में नारी पक्षधरता को लेकर इधर कई लेखिकाओं ने कथा लेखन किया है जिसमंे महत्वपूर्ण हैं ममता कालिया, कृष्णा अग्निहोत्री, चित्रा मुदगल, मणिक मोहनी, मृदुला सिन्हा, मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, मंजुला भगत, मृणाल पांडे, नासिरा शर्मा, दीप्ति खंडेलवाल कुसुम अंशल, इन्दू जैन, सुनीता जैन आदि अनेक महिला कथाकारों के नारी होने के नाते नारीमन की गहराईयों की अंकन संजीदगी से किया। समकालीन महिला लेखन की पहचान कथा साहित्य से ही बनी। पाश्चात्य नारीवाद का हिन्दी साहित्य पर आठवंे नौवंे दशक में महिला लेखन पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इससे यह हुआ कि धीरे-धीरे उनके लेखन में पैनापन आता गया। हॉलाकि समकालीन लेखन में पुरूष और नारी लेखन के अलग अलग विभाजन को लेकर काफी विवाद हुआ। लेकिन इसमें कोई शक नहीं की अलग अलग वर्ग के ये दोनों अपने अपने वर्ग के अस्मिता की अभिव्यक्ति जितनी ईमानदारी से करेगें वह दूसरे के साथ संभव नहीं है इस संदर्भ में महादेवी वर्मा ने बड़ा सृजन और प्राकृतिक विशेषताओं के कारण नारी जीवन के कोमल रहस्यमय और विकासशील पक्ष का पर्याय है अतः किसी भी संस्कृति और समाज के विकास का मापदण्ड नारी की स्थिति से ही मानी जाती है।“7
महादेवी ने यह कहकर न केवल नारी की वास्तविक स्थिति का साक्षात्कार कराया प्राकारान्तर से महिला लेखन पर भी अपनी पक्षधरता दिखाई। इसमें कोई शक नहीं कि नारी सृष्टि का मूल है और साहित्य का उत्स। साहित्य जीवन यथार्थ की अभिव्यक्ति करता है जो बिना नारी के अपूर्ण ही रहेगा। इस संदर्भ में महादेवी वर्मा कहती है ”नारी जागरण की दृष्टि से तो साहित्य उसके स्वत्व और व्यापार का समर्थ व्याख्याकार ही रहा है, कवियों के कंठ से भारत की जय ही नहीं गूँजी, नारी की जय भी ध्वनित हुई। कथाकारों के आँखों में भारत की परवशता पर आँसू ही नही आए, विवश नारी के बंधनों पर आए।“8
प्रकारान्तर पश्चिमी नारी मुक्ति आंदोलन के कारण हिन्दी कथा लेखिकाओं ने अपनी कहानियों में नारी संघर्ष के बहुविद्य चित्र खीचें उसमें उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, शिवानी ये चार चर्चित नाम हैं। ’एक कोई दूसरा’ ’कितना बढ़ा झूठ’, फिर बसंत आया, इनके कहानी संग्रह है। इन्होने इन कहानियों में भारतीय नारी की दिशाहीनता दुविधाग्रस्तता कुंठा आदि अतृप्ति आदि का विश्लेषण किया है। मन्नू भंडारी, मै हार गयी, यही सच है, त्रिशंकु अपराधिनी, रतिविलाप इनके कहानी संग्रह है जिसमें वे नारी में छिपे शक्तियों को पहचाना वही उसकी कमजोरियों और सीमाओं का निष्पक्ष भाव से संकेत किया।
कृष्णा सोबती के कहानी संग्रह है यारों के यार, तिनका पहाड़, बादलों के घेरे जिनमें नारी जीवन में यौन प्रश्नों को लेकर उन्होने आधुनिक भारतीय पितृसत्तात्मक पारिवारिक सामाजिक संरचना पर करारा प्रहार किया। इसके अलावा कृष्णा अग्निहोत्री, मंजुला मुदगल, ममता कालिया मैत्रयी पुष्पा, मालती जोशी, मृदुला जोशी, शशिप्रभा शास्त्री, मृदुला सिंन्हा, सुधा अरोड़ा, नासिरा शर्मा, मृणाल पांडे दीप्ति ख्ंाडेलवाल, निरूपमा शेवती, सूर्यबाला, कुसुम अंशल सुनीता जैन, इन्दू जैन, अर्जना वर्मा उषा महाजन, क्षमा शर्मा प्रभा खेतान, नमिता सिंह अलका सरावगी, जया जादवानी मुक्ता रमणिका गुप्ता आदि लेखिकाओं ने भी अपनी रचना के माध्यम से आधुनिक नारी बोध को जीवन स्थितियों की जटिल अनुभूतियों के साथ व्यक्त किया। इसमें कोई्र शक नहीं। इसके अलावा स्त्री प़क्षधरता पर प्रेमचंद से लेकर राजेन्द्र यादव तक सभी रचनाकारों ने नारी पक्षधरता पर अपनी बात तो कही ही साथ ही समकालीन युवा रचनाकारों ने भी नारी विमर्श के बहुविध रूप अपनी रचना में व्यक्त किया है।
कभी साहित्य में स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाकर समकालीन महिला लेखिकाओं ने स्त्री पुरूष संबंधों के एक नये समीकरण की तरफ संकेत किए हैं ”पश्चिम से आयातित बौद्धिकता पूर्ण स्त्री चिंतन के प्रभाव से इसे वृहतर भारतीय नारी समाज से पृथक किया है तदापि नारी संदर्भ में एक जातीय चेतना का आविर्भाव तो किया ही है।“9
इन सारे विश्लेषणों का सार यह है कि समकालीन कहानी आलोचना उतनी समृद्ध नहीं हो सकी जितनी कविता आलोचना। समीक्षा के द्वारा आज के कथालेखन की जो तस्वीर सामने आयी है वह समकालीन कहानी की दुनिया से मिलती नहीं समकालीन आलोचना को समीक्षकों ने आगे बढ़ाने का काम तो किया लेकिन कहानी आलोचना की समीक्षा बहुत समृद्ध नहीं हो सकी। इसमें कोई शक नहीं। हिन्दी कहानी लेखन में आजादी के बाद स्त्री विमर्श के विविध रूप महिला लेखन के साथ साथ पुरूष लेखन में भी देखने को मिलते हैं। समकालीन महिला तथा लेखिकाओं ने अपने अन्तर्मन की पीड़ा, आक्रोश और पक्षधरता को इधर खूब उद्घाटित किया।
संदर्भ ग्रंथ
1. जानकी प्रसाद शर्मा, कहानी का वर्तमान राजसूय प्रकाशन दिल्ली, पृष्ठ 7-8
2. बलराम, समकालीन हिन्दी कहानी, दिनमान प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 5-6
3. बलराम, समकालीन हिन्दी कहानी, दिनमान प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 5
4. बलराम, समकालीन हिन्दी कहानी, दिनमान प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ 8
5. मधुरेश, हिन्दी कहानी अस्मिता की तलाश, आधार प्रकाशन पंचकूला, हरियाणा 1997, पृष्ठ 24
6. कमलेश्वर, आज का यथार्थ, ’सारिका’, अक्टू 1974, पृष्ठ
7. महादेवी वर्मा ’नये दशक में महिलाओं’ का स्थान, पृष्ठ 3
8. महादेवी वर्मा ’नये दशक में महिलाओं’ का स्थान, पृष्ठ 13
9. डॉ. ओम प्रकाश शर्मा, ’समकालीन महिला लेखन’, पूजा प्रकाशन एवम् खामा पब्लिशर्स दिल्ली 2002, पृष्ठ 209

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1 टिप्पणी:

  1. "नारी विमर्श" के लिए तीन नारियों की आवश्यक्ता होती हैँ..
    1 रचनाकार स्वयं "नारी" हो
    2 अपनी रचना मेँ उसने "नारी" पात्र का आलेखन किया हो
    3 आलोचक "नारी" हो
    इस तरह किसी आलोचना को "नारी विमर्श" कहा जाता है।
    हम रामदरश मिश्र के नारी पात्रों की आलोचना को "नारी विमर्श" शीर्षक नहीं दे सकते क्योंकि रचनाकार "नारी" नहीं है। यदि कोई पुरुष आलोचक मृदुला गर्ग के नारी पात्रों पर आलोचना करे तो भी आलोचना को "नारी विमर्श" शीर्षक नहीं दे सकते क्योंकि आलोचक "नारी" नहीं है। "नारी विमर्श" के लिए उपर्युक्तानुसार तीन नारियों की आवश्यक्ता होती हैँ।
    आपकी आलोचना अच्छी है, बस शीर्षक गलत है। इसे नारी चेताना अवश्य कहा जा सकता है।

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