अध्यापक शिक्षा में चुनौतियाँः एक दृष्टि

डॉ. अनिता सिंह

कोठारी शिक्षा आयोग का उल्लेखनीय विचार रहा है कि ‘‘भारत की भावी पीढ़ी का निर्माण उसकी कक्षाओं में हो रहा है। इक्कीसवीं सदी के भारत में यह पीढ़ी कुशल एवं सम्भावनाओं से परिपूर्ण मानव संसाधन का अभिन्न अंग होगी। यह सर्वमान्य तथ्य है कि कक्षाओं में निर्मित होने वाली भावी पीढ़ी एवं उसे कैाशलों से युक्त मानव संसाधन बनाने में कुशल शिक्षकों का योगदान अहम होगा। कुशल शिक्षकों के निर्माण हेतु सुगठित, सुनियोजित एवं उपयुक्त शिक्षक-शिक्षा का होना आज की आवश्यकता है। ऐसी शिक्षक-शिक्षा का गठन आज राज्य एवं राष्ट्र की सर्वप्रमुख चुनौती है।
आज के उभरते हुए भारत में आने वाले सामाजिक परिवर्तन तथा वैश्वीकरण की आवश्यकताओं के अनुरूप ‘‘सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा’’ पर बल देना जगजाहिर है। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का आदान-प्रदान पूर्णतः शिक्षकों की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। शिक्षकों की गुणवत्ता, शिक्षक-प्रशिक्षकों की व्यावसायिक दक्षता,शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थाओं के उत्साह,प्रतिबद्धता एवं संरचनात्मक ढाँचा, अकादमिक एवं शोध आधारित नवाचारी विचार व विकास तथा सर्जनापूर्ण अध्यापन तथा पाठयक्रम के क्रियान्वयन पर निर्भर करती है। इन लक्ष्यों की पूर्ति करने वाली शिक्षक-शिक्षा का क्र्रियान्वयन भी आज चुनौती बनी हुई है।

महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय, वाराणसी के भूतपूर्व कुलपति डॉ. के. पी. पाण्डेय ने अपने लेख ‘‘भारतीय संदर्भ में अध्यापक शिक्षा परिदृश्य एवं चुनौतियॉ (अन्वेषिका-2005)’’ में प्रमुख चुनौतियों को रेखांकित करते हुए लिखा है कि एक व्यापक, गतिशील, मूल्यों पर आधारित, संवेदनशील, उत्तरदायी वैश्वीकरण की विवशताओं से निपटने का सामर्थ्य रखने वाली दूरदर्शी अध्यापक - शिक्षा व्यवस्था विकसित करना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है। उन्होनें अपने बेबाक चिन्तन में भारतीय संदर्भ में अध्यापक -शिक्षा के कतिपय आधारभूत मुद्दो को उठाते हुए लिखा है कि अध्यापक शिक्षा के क्षेत्र में प्राथमिक स्तर पर गठित डाईट तथा माध्यमिक स्तर पर गठित शिक्षा महाविद्यालय एवं उन्नत शिक्षा अध्ययन संस्थानों के अस्तित्व में आ जाने के बाद भी सेवापूर्वक प्रशिक्षण में अपेक्षित गुणवत्ता का आयाम नहीं जुड़ सका है। उनके अनुसार यदि अध्यापक शिक्षा के वर्तमान पाठ्यक्रमों, शिक्षा महाविद्यालय में नियुक्त शिक्षक प्रशिक्षकों एवं कार्यक्रमों को गुणवत्ता के मानकों -कुशलता, प्रतिबद्धता,उपलब्धि एवं उत्कृष्टता - की दृष्टि से कसौटी पर कठोरतापूर्वक परखा जाए तो लगभग 5 प्रतिशत संस्थायें भी खरी नहीं उतर सकेंगी। उनकी शंका है कि निकट भविष्य में भी इस स्थिति में सुधार के लक्षण नहीं दिखाई पड़ रहें है। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद एवं राष्ट्रीय आंकलन एवं प्रत्यानयन परिषद के मध्य संयुक्त रणनीति के स्वीकार किये जाने तथा अध्यापक शिक्षा की संस्थाओं द्वारा इनकी परिधि में मूल्यांकन कराये जाने की व्यवस्था पर पहल किये जाने के बावजूद, गुणवत्ता का मुद्दो विकट एवं दुरूह बनता जा रहा हैं। यह चुनौती तो है ही, इससे शिक्षक-शिक्षा में विविध अवसरों को भी बाधित किया जा रहा है।
इसी संदर्भ में डॉ. पाण्डेय ने अध्यापक-शिक्षा के कतिपय बुनियादी प्रश्नों को भी उठाया है-यथा
स कुशल, प्रतिबद्ध एवं भारतीय संस्कृति के शाश्वत् मूल्यों से जुड़े शिक्षकों की तैयारी कैसे सुनिश्चित हो ?
स अध्यापक -शिक्षा के विभिन्न स्तरों यथा -पूर्व प्राथमिक,उच्च प्राथमिक,माध्यमिक एवं महाविद्यालयी व्यवस्थाओं के लिए तैयार की जाने वाली संस्थाओं में परस्पर सहयोग एवं तालमेल कैसे लाया जाए?
स अध्यापक-शिक्षा को व्यावसायिक शिक्षा के विशिष्ट दर्जे का स्वरूप देने के लिए कौन से पग उठाये जाने चाहिए?
स अध्यापक-शिक्षा को सशक्त बनाते हुए उसे शिक्षा की अद्यतन अवधारणाओं एवं प्रौद्योगिकी के प्रभावी उपयोग का माध्यम कैसे बनाया जाए?
स अध्यापक -शिक्षा को मूल्यों के विकास में प्रभावी उपकरण के रूप् में विकसित करने हेतु उसे किस रूप में परिवर्तित, परिवर्द्धित एवं संशोधित किया जाए ताकि उसके सशक्तीकरण का मार्ग प्रशस्त हो?
स अध्यापक-शिक्षा में स्तरीय एवं गुणवत्तापूर्ण अध्ययन सामग्री की उपलब्धता सुनिश्चित करने हेतु क्या प्रभावी पग उठाये जाए?
स सभी स्तरों पर अध्यापक -शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण कैसे बनाया जाए?
डॉ. पाण्डेय द्वारा अध्यापक - शिक्षा के संबंध में उठाये मुद्दे तथा भारतीय संदर्भ में उनके विचार भारत के अनेक राज्यों की अध्यापक -शिक्षा तथा विशेषकर छत्तीसगढ़ राज्य में अध्यापक-शिक्षा के संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है। इन प्रश्नों के हल ढूंढने की ओर राज्य सरकार एवं संबंधित संस्थाओं, प्रबंधकों को प्रयास करने चाहिए।
यहाँ प्रासंगिक होगा कि अपने नवोदित राज्य छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में अध्यापक-शिक्षा की सम्भावनाओं एवं चुनौतियों की भी चर्चा की जाएः-
छत्तीसगढ़ में अध्यापक-शिक्षा पर एक नजर
भारत का छत्तीसगढ़ राज्य एक नवोदित राज्य है जिसकी स्थापना पहली नवम्बर,2000 में हुई। इस राज्य में शिक्षक-शिक्षा के विकास की यात्रा पिछले 11 वर्षो की अवधि में इसके जन्म से ही मान सकते हैं क्योंकि अपने मूल राज्य मध्यप्रदेश से इसके विभाजन के समय इसमें मात्र एक शासकीय शिक्षक-शिक्षा महाविद्यालय, एक शासकीय उन्नत शिक्षा -अध्ययन संस्थान, एक अनुदान प्राप्त शिक्षा संकाय, एक स्ववित्तपोषी शिक्षा संकाय, सात जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थायें, सात शासकीय एवं एक अशासकीय बुनियादी प्रशिक्षण संस्थायें ही संचालित थी। 18 जिलों के इस स्वतंत्र राज्य में शैक्षिक आवश्यकतायें एवं महत्वाकांक्षायें विशद् हो गयी है और प्रत्येक स्तर की शासकीय, अशासकीय शालाओं एवं शिक्षण-संस्थाओं में भारी वृद्धि हुई है। पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, सेकेण्डरी एवं सेकेण्डरी स्तर की शालाओं में छात्र-छात्राओं की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई है और स्पष्टतः इससे राज्य में प्रशिक्षित शिक्षकों की माँग व प्रशिक्षण-संस्थाओं के विस्तार में भी वृद्धि हुई है।
छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के समय देश की नवमीं पंचवर्षीय (1997-2002) का अन्तिम चरण चल रहा था। इस योजना में शिक्षक-शिक्षा की दृष्टि से अखिल भारतीय स्तर पर प्रमुख लक्ष्य ‘‘अधोसंरचनात्मक विकास एवं पाठ्यक्रम संशोधन ’’ सुनिश्चित किया गया था। इस लक्ष्य के परिपालन हेतु अखिल भारतीय स्तर पर राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद्, शिक्षक-शिक्षा महाविद्यालय, उन्नत शिक्षा अध्ययन संस्थान, जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थायें तथा विकासखण्ड एवं क्षेत्र स्तरीय स्त्रोत केन्द्रों के सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया प्रमुखता से संचालित हुई और राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् द्वारा विकसित पाठयक्रम संशोधन का प्रारूप अनुमोदित किया गया।
इसी अवधि में शालाओं की प्रभावशीलता बढ़ाने का प्रयास भी प्रारम्भ हुआ जिसके अन्तर्गत दूर-देहात के क्षेत्रों में शिक्षकों को स्थान विशेष पर ही परामर्श एवं निर्देशन देने हेतु स्त्रोत पुरूषों का सचल समूह ;डवइपसम ज्मंउे व ित्मेवनतबम व िच्मतेवदेद्ध बनाया गया।
इस परिप्रेक्ष्य में छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद् तथा राजीव गाँधी शिक्षा मिशन स्थापित हुए। राज्य के प्रत्येक जिले में एक-एक जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्था;क्प्म्ज्द्ध स्थापित करने की प्रक्रिया भी प्रारम्भ की गयी। इसी काल में राज्य में जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम ;क्च्म्च्द्ध का अभियान सम्पन्न हुआ और उसकी उपलब्धियों एवं अपूर्ण कार्यो को पूरा करने के लक्ष्य को सर्वशिक्षा अभियान के सर्वव्यापी कार्यक्रम में समाहित किया गया। इस अभियान की आवश्यकताओं ने शिक्षक-शिक्षा के विकास को अतिरिक्त गति प्रदान किया है।
वास्तव में राज्य में शिक्षक-शिक्षा के विकास का वर्तमान स्वरूप दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-2007) काल में ही प्राप्त हुआ है। इस योजना में शिक्षक-शिक्षा के विकास हेतु अखिल भारतीय स्तर पर प्रमुख लक्ष्य ‘‘शिक्षकों के व्यावसायिक विकास का सुदृढ़ीकरण’’ ;ैजतमदहजीमदपदह च्तवमिेेपवदंस क्मअमसवचउमदज व िज्मंबीमतेद्धष् रखा गया था। इसके अन्तर्गत दूरवर्ती शिक्षा साधनों सहित सभी शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों का उपयोग कर अगले तीन वर्षो की अवधि में सेवारत सभी अप्रशिक्षित प्रारम्भिक शिक्षकों को प्रशिक्षित करने का बीड़ा उठाया गया।
‘‘2007 तक प्राथमिक शिक्षा तथा 2010 तक प्रारम्भिक शिक्षा सर्वसुलभ बन जाय’’ - वर्तमान में संचालित सर्वशिक्षा अभियान का प्रमुख लक्ष्य है। इस संदर्भ में कतिपय उल्लेखनीय निर्णय लिए गए हैं। दसवीं पंचवर्षीय योजना काल में ही इस लक्ष्य को पाने के लिए प्रारम्भिक शिक्षा क्षेत्र में अतिरिक्त प्रशिक्षित शिक्षकों की भारी संख्या की आवश्यकता अनुभव की गयी।
अखिल भारतीय स्तर पर शिक्षक-शिक्षा के विकास से जुड़े उपरोक्त निर्णयों ने छत्तीसगढ़ राज्य में शिक्षक-शिक्षा के विकास की दिशा में अहम भूमिका अदा की है। राज्य में अनेक स्ववित्तपोषी संस्थाओं एवं कतिपय नये विश्वविद्यालयों ने अपने यहाँ बी. एड. एवं डी.एड. पाठयक्रम संचालित करने में पहल की है और उन्हें इस प्रयास में सफलता भी मिली है।
छत्तीसगढ़ में शिक्षक-शिक्षा के क्षेत्र में चुनौतियों एवं अवसरों की चर्चा को ध्यान में रखकर निम्नानुसार कतिपय प्रमुख मुद्दों को ध्यान में रखना होगा।
अ शिक्षा में संवैधानिक दायित्व पूर्ण करने की चुनौती:
पिछले दो दशकों से भारत के शैक्षिक परिदृश्य में सर्वाधिक दबाव डालने वाला तथ्य ‘‘शिक्षा में संवैधानिक दायित्व’’ को पूर्ण करने का रहा है जिसके तहत प्रारम्भिक शिक्षा में शाला जाने योग्य आयु के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा सुलभ बनाना रहा है। इसके लिए सबसे सशक्त तथ्य सार्विक सुलभता,;न्दपअमतेंस ंबबमेेद्ध सार्विक दर्ज अभियान एवं नियमितता, ;न्दपअमतेंस मदतवसउमदज ंदक तमजमदजपवदद्धएवं सार्विक उपलब्धता ;न्दपअमतेंस ंबीपमअमउदजद्ध रहे हैं। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रयासों की सफलता ने प्रारम्भिक एवं माध्यमिक कक्षाओं के छात्रों की दर्ज संख्या में आशातीत वृद्धि कर दी है। इससे हमारा ध्यान अतीत में प्रचलित म्कनबंजपवद वित बसंेेमे से आगे बढ़कर वर्तमान में म्कनबंजपवद वित उंेेमे;म्थ्। म्कनबंजपवद वित ।ससद्ध पर केन्द्रित हो गया है। इससे छात्रों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ सुप्रशिक्षित अध्यापकों की संख्या और उनकी माँग बढ़ गयी है।
अ शिक्षक-शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण बनाने की चुनौती:
राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद् द्वारा जारी अभिलेख ‘‘गुणवत्तापूर्ण अध्यापक शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम परिप्रेक्ष्य (1998)’’ में यह स्वीकार किया गया है कि स्वदेशी संकल्पना के परिपालन हेतु अध्यापन शिक्षा के पाठ्यक्रम में एक राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली विकसित की जानी चाहिए जो भारत की सांस्कृतिक विरासत पर आधारित हो तथा सामाजिक परिवर्तनों व निरन्तरता के अनुरूप ही संवैधानिक उद्धेश्यों को प्राप्त करायें एवं नयी सामाजिक व्यवस्था के अभ्युदय में सहायक हो, व्यावसायिक रूप से दक्ष, समर्पित शिक्षक तैयार करे। यह सर्वाधिक मुखर चुनौती है।
छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ में इस दिशा में कुछ सार्थक पहल अब आवश्यक हो गए हैं, यथाः-
1. स्वैच्छिक संगठनों का सहयोग लेकर शिक्षक-शिक्षा में शिक्षकों के सेवाकालीन प्रशिक्षण को बहुआयामी, संवर्द्धित और विशिष्ट बनाया जा सकता है। राज्य शासन को इनके सहयोग को प्रोत्साहित करना चाहिए।
2. प्रशिक्षण संस्थाओं के कार्यो का मानकों के अनुरूप मूल्यांकन करना वर्तमान में राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं की मान्यता एवं नये पाठयक्रमों के संचालन की अनुमति दी जाती है। वह अपने मानकों के परिपालन को भी सुनिश्चित करते है परन्तु राज्य में संचालित हो रही शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थायें अपेक्षानुकूल कार्य नहीं कर रही हैं। जब तक छ।।ब् द्वारा संस्थाओं का मूल्यांकन करना आम न हो जाये तब तक शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थाओं का मूल्यांकन एवं मॉनीटरिंग विश्वविद्यालयों एवं राज्य शासन को करना चाहिए।
3. पैराटीचर्स के कार्यक्रमः
राज्य में शिक्षाकर्मी योजना अलोकप्रिय एवं अव्यवस्थित रही है। आये दिन शिक्षाकर्मी हड़ताल पर रहते हैं। इन्हे न तो कर्णप्रिय नाम दिया गया है और न ही पर्याप्त दाम इसलिए बदले में ये सन्तोषप्रद काम नहीं दे पा रहे है। ये शिक्षाकर्मी की समस्याओं को हल कर उनकी व्यावसायिक दक्षता बढ़ाने हेतु कार्यक्रम बनाना गुणवत्ता की दृष्टि से हितकर होगा। डी.एड. के नियमित दो वर्षीय प्रशिक्षण के माध्यम से प्रशिक्षण लेना श्रेयस्कर है। साथ ही प्रशिक्षित शिक्षाकर्मियों को ही शिक्षक बनाना वांछनीय भी है, न्यायसंगत भी। उचित होगा, शासन पूर्वमान्य नियमों के अनुसार शिक्षक, स्नातक शिक्षक तथा व्याख्याता नियुक्त करे तो अधिक सार्थक होगा।
4. सम्बद्ध शिक्षक -प्रशिक्षण संस्थाओं की नेटवर्किग करनाः
राज्य एवं राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद,क्षेत्रीय शिक्षा संस्थान, उन्नत शिक्षा संस्थान, शिक्षा महाविद्यालय, डायट्स आदि सभी सम्बद्ध शिक्षक प्रशिक्षक संस्थानों का इलेक्ट्रानिक नेटवर्किग अत्यंत उपयोगी कदम होगा। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य जिसमें बिखरी हुई आदिवासी बस्तियाँ अधिक हैं, पहाड़ी एवं जंगली क्षेत्र अधिक है, वहाँ तक शिक्षा सुविधायें पहुँचाने हेतु इस प्रकार की नेटवर्किग कारगर पहल होगी। इससे वीडियो कान्फ्रेन्सिग एवं टेली कान्फ्रेन्सिग में सुविधा होगी।
5. गुणवत्तापूर्ण सहायक सामग्री की उपलब्धिः
यदि पेडागागी विश्लेषण, उदीयमान भारतीय समाज दक्षता आधारित शिक्षा, सीखने के उन्नत सिद्धांत जैसे विषयों पर शिक्षकों एवं शिक्षक-प्रशिक्षकों के लिए अध्यापन सामग्री विकसित की जाये तो शिक्षक-शिक्षा के विकास में अत्यंत प्रभावकारी कदम हो सकता हैं। विशेषज्ञों की सहायता से मूल्य शिक्षा,संस्कृति सापेक्ष पेडागागी, स्वदेशी ज्ञान एवं सिद्धांतों पर बल दिया जाये तो राज्य में एक प्रभावकारी शिक्षक-शिक्षा प्रणाली विकसित हो सकेगी और इससे राज्य में कुशल मानव संसाधन प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। ये चुनौती भरे कार्य है। परन्तु इनकी प्रतिपूर्ति छत्तीसगढ़ को अग्रणी राज्य की श्रेणी में ला खड़ा करेगी।
असमावेशी शिक्षा के सफल क्रियान्वयन की चुनौतीः
छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में समावेशी शिक्षा का सफल क्रियान्वयन समता एवं न्याय प्रदान करने वाली शिक्षा के रूप में एक वांछनीय कदम होगा। समावेशी कक्षाओं में ‘विशेष आवश्यकता वाले बच्चों’ ;ैम्छद्ध विशेषकर विकलांग बच्चे, सामान्य बच्चों के साथ मुख्य धारा की शालाओं में बिना किसी भेदभाव के एक साथ पढ़ते हैं। इस कार्य की सफलता के लिए सभी सामान्य शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण देना अनिवार्य होगा। सेवाकालीन प्रशिक्षणों में ऐसे शिक्षकों को ब्ववचतंजपअम जमंबीपदह.समंतदपदहए च्ममत जनजवतपदहए डनसजप . स्मंअमस प्देजपजनजपवदेए ।बजपअपजल इंेमक समंतदपदह आदि विधियों का सम्यक् ज्ञान देना होगा। इन्हें इस विषय में क्रियात्मक अनुसंधान, केस स्टडीज का भी ज्ञान देना होगा। यह कार्य अत्यंत जटिल है और चुनौती भरा है, ‘‘सभी के लिए शिक्षा’’ जैसे विश्वव्यापी लक्ष्य को पाने के लिए आवश्यक भी है।
परिमाणात्मक विस्तार की दृष्टि से प्रारम्भिक एवं माध्यमिक दोनों स्तर पर इस छोटे राज्य में प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यक संख्या की पूर्ति उपरोक्त संस्थाओं के माध्यम से सम्भव हो गयी है। राज्य में पहले से ही बी.एड. प्रशिक्षित व्यक्तियों की पर्याप्त संख्या उपलब्ध है। राज्य शासन को इस सम्बन्ध में अपनी नीतियों में परिवर्तन करना चाहिए। प्रत्येक स्तर के अध्यापकों की नियुक्ति में बी.एड./डी.एड. प्रशिक्षित उम्मीदवारों को वरीयता देते हुए उनकी नियुक्ति अनिवार्य की जानी चाहिए और तत्पश्चात् मांग-पूर्ति में समन्वय स्थापित करते हुए आवश्यकतानुसार ही और प्रशिक्षण संस्थायें चलाने की अनुमति दी जानी चाहिए।
इस नवोदित राज्य में अध्यापक -शिक्षा की गुणवत्ता बनाये रखने को अधिक अहमियत देने की आवश्यकता है। धन-धान्य एवं संसाधनों से परिपूर्ण इस राज्य में कुशल एवं प्रशिक्षित मानव संसाधन की अधिक आवश्यकता है जिससे वर्तमान और भविष्य में राज्य का सन्तुलित विकास निरन्तर होता रहे। इसके लिए एक सुगठित शिक्षा-नीति और उसमें एक सुगठित अध्यापक-शिक्षा नीति अधिक सार्थक होगी। मनमाने ढ़ग से बी.एड. कॉलेज खोलने की अनुमति देना और शिक्षक-प्रशिक्षकों की नियुक्ति तथा आधारभूत संरचना जुटाने में मानकों की अवहेलना करने वाली संस्थाओं को बी.एड. पाठयक्रम चलाने देना एक सामाजिक अपराध समझा जाना चाहिए क्योंकि सुयोग्य शिक्षक-प्रशिक्षकों की के अभाव में यदि एक भी सत्र में अप्रशिक्षित, अल्प प्रशिक्षित या अर्द्ध प्रशिक्षित शिक्षक उम्मीदवारों को बी.एड. उपाधि वितरित की जाती है तो ऐसे लोग शिक्षक बनने का लाइसेंस पाकर सेवापर्यन्त भावी पीढ़ी के साथ न्याय नहीं कर सकेंगे।

स सहायक प्राध्यापक
गुरू घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय,बिलासपुर,(छत्तीसगढ)़

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