कला का तीसरा क्षण और साधारणीक रण

डॉ. राजेश कुमार दुबे  राजेश्वर प्रसाद तिवारी

मुक्तिबोध ने रस विषयक चर्चा क हीं पर भी अलग से नहीं की है, क्योंकि वे संभवत: पहले से चले आ रहे इस पचड़े में नहीं पडऩा चाहते थे। फिर भी उन्होंने एक साहित्यिक की डायरी में तीसरा क्षण नामक जो निबंध लिखा है उसे भारतीय रस चिंतन धारा की सर्वाधिक चर्चित विषय साधारणीक रण से अलग नहीं पाते है। क ई स्थलों पर तो ऐसा लगता कि प्राचीन आचार्याे की आत्मा मुक्तिबोध में समा गई है।
वास्तव में साहित्य चिंतन एक द्वन्द्वमयी प्रक ्रिया है। इस संघर्षपूर्ण विचार वीथि से गुजरक र ही हम किसी संगतपूर्ण निष्क र्ष तक पहुंचने में कामयाब हो सक ते हैं। इसी कारण से ही तीसरा क्षण को प्राचीन चिन्तन धारा से लेक रअब तक प्रवहमान साधारणीक रण से जोडऩे की एक असफल को शिश में हम जुटे हुए हैं ताकि क म से क म एक सामान्य परन्तु संगतपूर्ण निष्क र्ष तो प्रस्तुत क र सकें।
सर्वप्रथम हमें संस्क ृति के प्रथम आचार्य और पंचम वेद नाट्य शास्त्र के प्रणयनक र्ता भरतमुनि के उस लघु सूत्र को जान लेना चाहिए जिसके इर्द-गिर्द विचारों का एक पूरा जंगल स्थित है। वह सूत्र है विभावानुभावव्यभिचारी संयोगाद रसनिष्पत्ति:। इसका शब्दार्थ है- विभाव अनुभव और संचारी भाव के संयोग से स्थायी भाव की रस रूप में निष्पत्ति होती है।

रस संबंधी समस्त चर्चा इसी सूत्र के आधार पर अद्भूत हुई। इस सूत्र के व्याख्याकारों में भट्टलोल्लट, शंकुल, महानायक और अभिनवगुप्त के नाम प्रमुख हैं। किन्तु, भट्टलोल्लट और शंकुक ने साधारणीक रण पर विशेष ध्यान नहीं दिया और सामाजिक के महत्व को भी उपेक्षित क र दिया। संस्क ृत के दो प्रमुख आचार्याे के ही सद्विषयक अनुदान को सर्वथा मौलिक और सार्वभौम क हा जा सक ता है। ये दोनों आचार्य हैं भट्टनायक और अभिनवगुप्त।
भट्टनायक के अनुसार साधारणीक रण का अर्थ है व्यक्तित्व का अलौलिक रूप से निर्विशेषीक रण। तात्पर्य है- सामाजिक , क वि-निर्मित पात्रों को (विभावदि को ) नटादि (अनुक र्ता) के व्यक्तित्व के बिना ग्रहण क रता है। चूंकि क वि निर्मित पात्र क ल्पित होते है इसलिए लौकिक नहीं होते हैं। अत: सामाजिक भी अलौकिक ता के साये में उन पात्रों को ग्रहण क रता है।
अभिनवगुप्त का मत भी प्रारभिक स्तर पर भट्टनायक से अलग नहीं हैं। जहां पर अभिनवगुप्त क हते है सा चैक चितवृत्ति: स्वकी य परकी यमिति........ स्वपरभावात् प्रच्याविता अतएव साधारणीभूततया सामाजिकानामपि स्वात्मसद्भावेन समावेशयन्ती तादात्म्यादेव च- वहां तक उनके विचारों का रूख भट्टनायक के समान ही जान पड़ता है, क्योंकि वे भी व्यक्ति विशेष की सीमाओं से असंबद्ध होने की बात क हते हें। किन्तु दोनों में मूल अंतर यही है कि भट्टनायक के अनुसार स्थायी भावों की सृष्टि न तो नरादि में, न सामाजिक में, वह तो क वि क ल्पित विभावादि से ही जनमती है। पर, अभिनवगुप्त के अनुसार वे भाव सामाजिक के भीतर ही स्थित होते हैं तो अपनी सात्विक ता में सामाजिक को उसकी वैयक्तिक ता से ऊपर उठा ले जाते हैं।
आधुनिक हिन्दी साहित्य में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, डॉ. श्याम सुंदर दास, आचार्य नंददुलारे बाजपेयी, पं. केशवप्रसाद मिश्र, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. नगेन्द्र आदि अनेक विद्वानों ने इस संबंध में विचार किया है। शुक्ल जी ने साधारणीक रण के लिए आलम्बनत्व धर्म को प्रमुखता दी है। पं. केशव प्रसाद मिश्र जी क वि और सामाजिक के भावना-तादात्मय को साधारणीक रण क हते हैं। बाजपेयी जी ने समस्त क वि-क ल्पित व्यापार के अतिरिक्त रचयिता और उपभोक्ता के बीच भावना-तादात्म्य को साधारणीक रण की संज्ञा दी हे। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार क वि की अनुभूति का साधारणीक रण होता है। इस संबंध में उन्होंने सर्वांग का साधारणीक रण जैसे विचार भी व्यक्त किए हैं। इसके बावजूद इस बात में को ई शक नहीं है कि सभी आधुनिक विद्वान कुछ-न-कुछ अंशो में किसी-न-किसी संस्क ृत-आचार्य के विचारों से अपना पीछा नहीं छुड़ा पाये हैं।
मुक्तिबोध ने साधारणीक रण के क ठिन सवाल को हल क रने के लिए किसी सूत्र (प्राचीन विचारणा) का सहारा नहीं लिया है उनके विचारों की तह तक पहुंचने से एक बात तो निश्चित हो जाती है कि साधारणीक रण सर्वांग का होता है। उनके अनुसार सबसे पहले क वि का साधारणीक रण होता है, जिसे उन्होंने तीन क्षणों में बांटक र स्पष्ट किया है। पहले उसे जीवन का उत्क ट तीव्र अनुभव होता है, फिर वह अनुभव अपने क सक ते दुखते मूलों से पृथक हो जाता है और एक फैंटे सी का निर्माण होता है। इसी दूसरे क्षण में क वि की निजता का अंत होता है और वह भाव-मात्र रह जाता है। इसी भावमयी क्षण में क ृति का जन्म होता है। इसी धरातल पर मुक्तिबोध के विचार रसाचार्यों से भिन्न होने लगते हैं। प्राचीन आचार्यों के अनुसार क वि या नाटक के पात्र क ल्पित होते हैं, किन्तु मुक्तिबोध की नज़र में वे पात्र अथवा भाव वास्तविक जीवन में घटित प्रसंगों से अलग नहीं होते हैं। क ल्पना तो केवल उसे सजाने में सहायक होती हैं।
मुक्तिबोध ने साधारणीक रण के लिए सामान्यीक रण शब्द का प्रयोग किया है। उनके विचार से सामान्यीक रण पारटीकुलर से जनरलाइजेशन है। क ला के दूसरे क्षण के अंतर्गत अनुभव के जनरलाइजेशन का विवेचन है, जो संस्क ृत आचार्यों के मत से बहुत अलग नहीं हैं। मूलभूत अंतर यही है कि भट्टनायक आदि आचार्यों ने साधारणीक रण प्रक ्रिया को -रचना से प्रारंभ क र सौन्दर्यानुभव तक (साधारणीक रण की ही एक स्थिति का नाम, जिसे तादात्म्य या तदाकारिता भी क ह सक ते हैं) पहुंचाया है, जबकि मुक्तिबोध ने इसे जीवनानुभव से शुरु क रके सौंदर्य मीमांसा तक पहुंचाया है।
इस तथ्य का मूल्यांक न क रने से एक बात तो साफ है कि प्राचीन आचार्यों ने यह भुला दिया कि क वि पहले अनुभव क रता है, फिर उसे शब्दबद्ध क रता है; परंतु एक सजग रचनाकार होने के नाते मुक्तिबोध ने इस क मी को महसूस क र लिया और इसीलिए उन्होंने अनुभव को प्रथम और सौंदर्य मीमांसा को अंतिम पड़ाव क हा।
स्पष्ट है कि मुक्तिबोध ने प्राचीन काल से चली आ रही साधारणीक रण संबंधी जटिल व द्वन्द्वात्मक प्रक ्रिया को बिलकुल सहज ढंग से सुलझाने से सफलता प्राप्त की है। दृष्टि की स्थिति मुक्त वैयक्तिक ता और संवेदना की स्थिति बद्ध वैयक्तिक ता का समन्वय क र उन्होंने बिलकुल नये को ण से उक्त विवाद को निपटाया है। अत: इस मौलिक विचार के लिये हिन्दी साहित्य सदैव उनका ऋणी रहेगा।
संदर्भ:-
1. नगेन्द्र, रीति साहित्य की भूमिका
2. बाजपेयी, नंददुलारे, रस-सिद्धांत
3. मुक्तिबोध, गजानन माधव, एक साहित्यिक की डायरी
4. शास्त्री, राजकिशोर, भारतीय काव्यशास्त्र
द्य शास. सत्यनारायण अग्रवाल महा. को हका-नेवरा
द्यद्य सहा. प्राध्या. शास. महा. बेमेतरा

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